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स्वास्थ्य का अर्थ क्या है | Swasthya Kya Hai | Swasthya Ka Arth | स्वास्थ्य की अवधारणा

स्वास्थ्य की अवधारणा

स्वास्थ्य प्रकृति की स्वाभाविक देन है। शरीर को स्वस्थ रखे बिना मनुष्य अपने लक्ष्य तक पहुँच नहीं पाता। कर्म, ज्ञान, भक्ति उपासना और चतुर्विधि पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) के समुचित साधन स्वस्थ जीवन में ही सम्भव है। आज शारीरिक तथा मानसिक भोग-विलास के प्रसाधनों की इतनी विपुलता हो गयी है कि सामान्य मानव मानसिक शान्ति और शारीरिक स्वास्थ्य से दिनों-दिन विमुख एवं वचित होता जा रहा है। जीवन की अस्तव्यस्तता, विलासिता या इन्द्रिय लोलुपता, अप्राकृतिक आहार-विहार नकारात्मक चिन्तन के कारण मानसिक तनाव विकार तथा शारीरिक कष्ट बढ़ता जा रहा है, जिससे व्यक्ति, परिवार, समाज राष्ट्र का पतन होता जा रहा है।

मनुष्य यदि प्राकृतिक जीवन यापन करें अर्थात् अपने खान-पान, आहार-विहार, रहन-सहन एवं विचारों पर संयम रखते हुए प्रकृति के नियम पर चले तो वह आजीवन स्वस्थ रह सकता है। स्वस्थ जीवन जीने के लिये हमें कुछ नियम सूत्रों को जानना आवश्यक है, जैसे स्वास्थ्य क्या है? स्वास्थ्य का अर्थ एवं परिभाषायें? प्रकार एवं नियम क्या है? स्वस्थ पुरुष के लक्षण क्या हैं? आदि को जान कर ही हम स्वास्थ रहने का प्रयास कर सकते हैं।

Swasthya-Ka-Arth

स्वास्थ्य का अर्थ

स्वास्थ्य शब्द स्वस्थ शब्द से बना है। जो व्यक्ति के स्वस्थ होने के गुण या विशेषता को दर्शाता है। स्वस्थ शब्द स्व+स्थ से मिलकर बना है जिसका अर्थ है जो स्वयं में स्थित होना। तात्पर्य यह है कि वह अवस्था जिसमें व्यक्ति अपने में स्थित हो, स्वास्थ्य कहलाता है। जब हम अपने मूल स्वरूप में नहीं होते हैं तो हमारे अन्दर नाना प्रकार की विकृतियां आने लगती हैं, तो हम अस्वस्थ हो जाते हैं। अस्वस्थ होने पर नाना प्रकार की बीमारियाँ हमें घेर लेती हैं, शरीर की शक्ति भी धीरे-धीरे क्षीण होने लगती है और कार्य करने के अयोग्य हो जाते हैं।

मानव शरीर एक ऐसा विचित्र यंत्र है, जिसकी तुलना किसी भी अत्यन्त आधुनिक उकरण से नहीं दी जा सकती। शरीर के सभी अंग प्रत्यंग इस एक रूपता तथा सामंजस्य के साथ कार्य करते हैं कि व्यक्ति स्वस्थ बना रहता है। जीवित प्राणी केवल अपने समान प्रजनन की क्षमता रखता है अपितु शरीर के सभी अंगो की मरम्मत तथा क्षति पूर्ति तथा आरोग्य भी करता है। मानव शरीर के प्रत्येक अंग में आश्चर्यजनक एक रूपता तथा अन्तर्निहित शक्ति होती है, जिसके कारण विकट शारीरिक पुंगता की क्षतिपूर्ति हो जाती है। स्वास्थ तभी खराब होते है जब शारीरिक अंगो की समरूपता त्रुटिपूर्ण जीवन शैली के कारण अस्त-व्यस्त हो जाती है।

स्वाभाविक स्वास्थ्य प्रत्येक व्यक्ति को अभीष्ट है, इसके पहचान की व्याख्या करते हुए पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं कि जिस कार्य करने में किसी प्रकार की तकलीफ हो, श्रम से जो उकताए, मन में काम करने के प्रति उत्साह बना रहे, और मन प्रसन्न रहे और मुख पर आशा की झलक हो तो यही शरीर के स्वाभाविक स्वास्थ्य की पहचान है।

सामान्यतः व्यक्ति के शरीर को निरोगी होना ही ‘’स्वास्थ्य’’ समझा जाता है। जबकि शरीर का निरोगी होना स्वास्थ्य का एक पहलू मात्र है। स्वास्थ्य एक सम्पूर्ण शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक कुशलक्षेम की अवस्था है, केवल रोग और अशक्तता की अनुपस्थिति मात्र नहीं।

स्वास्थ्य जीवन का सबसे अनमोल निधि है। इसी पर मनुष्य की प्रसन्नताए खुशहाली, समृद्धि एवं क्रिया-कलाप निर्भर होते हैं। लेकिन स्वास्थ्य के संदर्भ में अनेक भ्रान्तियाँ हैं तथा उचित परिप्रेक्ष्य में इसका आँकलन नहीं किया जाता। आवश्यकता इस बात की है, कि प्रत्येक मनुष्य को स्वास्थ्य का सही अर्थ एवं स्वस्थ जीवन की विशेषताओं का सही-सही ज्ञान होना चाहिएजिससे जब उन मानदण्डों जो स्वस्थ जीवन के हैं, से विचलित होता है तो प्राकृतिक चिकित्सा का उपयोग करके पुनः स्वस्थ हो जाय एवं सामान्य जीवनयापन करने लगे।

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