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स्थितप्रज्ञ का स्वरूप | Sthitpragya Kya Hai | गीता के अनुसार स्थितप्रज्ञ क्या है

स्थितप्रज्ञ क्या है

श्रीमद्भगवद्गीता में स्थित प्रज्ञ को जानने से पूर्व हमें श्रीमद्भगवद्गीता का परिचय जानना आवश्यक है, जो की हम पूर्व में देख चुके हैं। स्थित प्रज्ञता के विषय में बताने से पूर्व भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से पुनः कहते हैं कि हे अर्जुन तूने कई प्रकार की बाते सुनी हैं, धर्म ग्रंथों को भी पढ़ा होगा जिससे तेरी बुद्धि विचलित हो गई है। क्योंकि लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के मत प्रकट करते हैं जिससे तू यह निर्णय नहीं कर पा रहा है कि इनमें कौन सा सत्य है और मैं किसको मानू? किन्तु जिस समय तेरी बुद्धि परमात्मा में स्थिर हो जाएगी उसी समय तुझे यह ज्ञात हो जाएगा कि इस सृष्टि का संचालन कौन कर रहा है तथा तेरी इसमें क्या भूमिका है, यही योग की स्थिति है। इससे पूर्व तू अपने मन के अनुसार ही निर्णय ले रहा है जिससे तुझे सत्य का ज्ञान नहीं हो पा रहा है। अतः परमात्मा में स्थित होने की चेष्टा कर। इसी क्रम में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं-

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌।।
गीता-2/54

अर्थात् हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरूष का क्या लक्षण है? वह स्थिर बुद्धि पुरूष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है। अर्जुन के द्वारा पूछे गए प्रश्न का जवाब देते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते है-

प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
गीता-2/55

अर्थात् जिस काल में यह पुरूष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भली-भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। भगवान का यही उत्तर है कि कामना मात्र मन की उपज है, वह विभिन्न प्रकार के सांसारिक भोगों की कामना ही करता रहता है तथा इन कामनाओं की पूर्ति न होने पर वह दुःखी होता है। ये कामनाएँ विभिन्न प्रकार की होती हैं जिनकी वह कभी पूर्ति कर ही नहीं सकता।

स्थितप्रज्ञ का स्वरूप

गीता के अनुसार स्थितप्रज्ञ का स्वरूप वीडियो देखें

इसी से उसकी बुद्धि भ्रमित होती है जिससे वह सत्यासत्य का निर्णय नहीं ले सकता, वह कामना के वश में नही होता। वह आत्मा में स्थित होकर उसी को अपना स्वरूप मानकर उसी में नित्य स्थित रहकर उसी से संतुष्ट रहता है तथा भोगों की कामना से ऊपर उठ जाता है। ऐसे ही व्यक्ति को स्थितप्रज्ञ, स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है। 

स्थितप्रज्ञ का स्वरूप

गीता में 'स्थित-प्रज्ञ' के दो रूप बतलायें है- विषयों से हटना यह स्थित-प्रज्ञता का नकारात्मक रूप है, अपने आप में जुड़ जाना यह स्थित-प्रज्ञता का सकारात्मक रूप है। स्थित-प्रज्ञ अपने को संसारिक विषयों से हटा लेता है और आध्यात्मिक विषयों से अपने को जोड़ लेता है पुनः भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि-

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।
गीता-2/56

अर्थात जिस साधक का मन दुःखों में उद्विग्न, बैचेन नहीं हो जाता, सुखों में जिसकी लालसा मिट जाती है, जो राग, भय और क्रोध से मुक्त हो जाता है, वह स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति 'मुनि' कहलाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्थित-प्रज्ञ को यहाँ मुनि कहा है। अस्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति चंचल होता है, वाचाल होता है, अंसतुष्ट होने के कारण चाहे जो कुछ बोला करता है। स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति शान्त होता है, संतुष्ट होने के कारण गलत नहीं बोलता। इसलिए उसे 'मुनि' कहा है- 'मुनि' अर्थात् 'मौन' स्वभाव वाला।

अर्जुन ने पूछा था कि स्थित-प्रज्ञ व्यक्ति किस ठंग से बोलता है- 'स्थितधी: कि प्रभाषेत्' उसका उत्तर दिया कि वह तो 'मुनि' होता है बहुत बोलता नहीं। वह सुख-दुख से तो प्रभावित होता ही नहीं, राग-भय-क्रोध से भी प्रभावित नहीं होता। ये तीन मनोभाव क्या है? संसार के विषयों के प्रति हमारी मनोकामनायें राग कहलाती हैं। इस खिंचाव में यह दुविधा सदा बनी रहती है कि हमारी मनोकामनाएँ पूर्ण होगी या नहीं। यही दुविधा भय कहलाती है। जिस कारण से मनोकामना पूर्ण नहीं होती उसके प्रति हमें क्रोध बना रहता है जिस व्यक्ति ने मनोगत-कामनाओं को छोड़ दिया- 'प्रजाहति यदा कामान सर्वान पार्थ मनोगतान' वह स्वभवतः राग, भय, क्रोध इन तीनों को भी त्याग देगा।

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता
गीता-2/57

अर्थात् जिसे किसी वस्तु के प्रति स्नेह नहीं रहता, जो शुभ को प्राप्त करके प्रसन्न नहीं होता, अशुभ को प्राप्त करके अप्रसन्न नहीं होता, उसकी 'प्रज्ञा' दृढ़ता से स्थिर हो गई है।

स्थित-प्रज्ञ का यह अर्थ नहीं कि जो व्यक्ति सांसारिक विषयों से अपने को हटा लेता है और आध्यात्मिक विषयों से अपने को जोड़ लेता है, 'मुनि' बन जाता है, वह संसार के कर्म करना ही छोड़ देता है। कर्म तो करना ही होगा, परन्तु कर्म करते हुए शुभ या अशुभ फल के कारण अपने को उद्विग्न नहीं करना होगा। तभी तो कहा है कि स्थितप्रज्ञ व्यक्ति शुभ फल से प्रसन्न नहीं होता। अशुभ फल से अप्रसन्न नहीं होता। अगर वह कर्म का ही त्याग कर दे तब तो शुभ-अशुभ की बात यहाँ उठाई ही नहीं जा सकती। इससे स्पष्ट है कि कर्म त्याग की बात गीता को मान्य नहीं है। आगे कहते हैं-

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
गीता-2/58

अर्थात् जैसे कछुआ सब ओर से अपने अंगो को समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरूष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। अर्थात् बुद्धि को स्थिर करने के कई उपाय हैं।

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शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ है- आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा। ये क्रमशः पाँचों विषयों को ग्रहण करती हैं- रूप, शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श। ये पाँचों विषय इनको प्रिय लगने के कारण ये उन्हीं में सदा आसक्त रहती हैं। यही आसक्ति मनुष्य की बुद्धि को भ्रमित करती है, जिससे उसका मन कभी शान्त नहीं रह सकता। इसको स्थिर करने का एक ही उपाय है कि जिस प्रकार कछुआ अपने सभी अंगों को समेटकर भीतर ले लेता है उसी प्रकार मनुष्य को चाहिए की इन सभी इन्द्रियों को इन विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर कर दे। इसी से मन की चंचलता दूर होकर उसकी बुद्धि स्थिर हो जाएगी। ऐसे ज्ञानीजन ही स्थिर बुद्धि वाले कहे जाते हैं।

पुनः भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि-

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते।।
गीता-2/59

अर्थात् इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरूष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते है, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति नहीं होती। इस स्थित-प्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करने से निवृत्त हो जाती है। अर्थात् आत्मज्ञान के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता है इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाना। इन्द्रियों का स्वभाव ही है कि वे इन पाँचों विषयों की ओर ही आकर्षित होती हैं। वे यह भूल जाती हैं कि इन विषयों में सुख है ही नहीं। किन्तु अज्ञानवश इन में आकर्षित होती है जिसका दुष्परिणाम उसे भुगतना पड़ता है।

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