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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार अर्जुन की अवस्था | महाभारत का प्रथम दिन | मोहग्रस्त अर्जुन

अर्जुन की अवस्था

भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद से निःसृत श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत का एक अंश है। महाभारत का युद्ध एक अप्रत्याशित घटना थी। अनेकों प्रयत्न करने के बाद भी इस युद्ध को टाला नहा जा सका। यह युद्ध किसी ईश्वरीय योजना के अनुसार ही हुआ था जिसे टालना सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं थी। कौरवों और पाण्डवों की सेनाएँ करुक्षेत्र नामक स्थान पर आमने-सामने खड़ी हैं दोनों सेनाओं की ओर से शंख ध्वनि हो रही है जो युद्ध आरम्भ का सूचक है। इसी बीच भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ रथ पर सवार होकर उसका सारथी बनकर अर्जुन का मार्गदर्शन कर रहे हैं इसी क्रम में अर्जुन हथियार उठाने वाले हैं किन्तु इसी बीच अर्जुन के मन में एक विचार आया कि मेरे साथ जो युद्ध करने आए हैं तथा मैं जिनसे युद्ध करूंगा उन्हें देखू कि वे कौन-कौन लोग हैं। 

इन विचारों के आते ही अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले चलिए। अर्जुन के कहने के अनुसार कृष्ण ने अपना रथ दोनों सेनाओं के बीच में भीष्मद्रोणाचार्य तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने लाकर खड़ा कर दिया। इसके बाद अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ, चाचादादाओंपरदादाओं कोगुरुओं कोमामाओं कोभाईयों कोपुत्रों कोपौत्रों कोमित्रों को तथा ससुरों को और अन्य सम्बन्धियों को भी देख।

श्रीमद्भगवद्गीता

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उपरोक्त उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करूणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन कहते है कि-

दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते।।

गीता-1/29

अर्थात् हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है।

उपरोक्त स्वजनों को अर्जुन मारने के लिए तैयार नहीं है। अर्जुन का सोचना है कि एक और ये आततायी हैं तो दूसरी ओर मेरे बान्धव भी तो हैं क्या इनको मारकर मैं सुख प्राप्त कर सकूँगा? उस स्थिति में अर्जुन के हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है, त्वचा भी बहत जल रही है, मन भ्रमित सा हो रहा है, इसलिए खड़ा रहने में भी समर्थ नहीं है, अतः युद्ध कैसे करेगा? गीता-1/30

पुनः अर्जुन अपनी मनः स्थिति को युद्ध के विपरीत लक्षण को देखकर युद्ध का परिणाम अच्छा नहीं समझ रहा है स्वजनों को मारने से कौन सा कल्याण होगा उसकी समझ में नहीं आ रहा है। भगवान श्रीकृष्ण से कहता है कि- मैं न तो विजय ही चाहता हूँ और न ही ऐसा राज्य चाहता हूँ जो अपने बान्धवों को मारकर प्राप्त हो। न मेरी सुखों के भोग की ही इच्छा है ऐसा लग रहा है कि स्वजनों को मारकर उसे जीवन में सुख नहीं मिल सकेगा, अतः वह लड़ने का इच्छुक नहीं है। जिस प्रकार भूख न लगने पर कोई भोजन बनाने को तैयार नहीं होता। अर्जुन किंकर्त्तव्य विमूढ़ है, क्योंकि कुल का नाश होने पर सनातन कुल परम्परा नष्ट हो जाती है और इस तरह शेष बचा हुआ कुल भी अधर्म में प्रवृत्त हो जाता है गीता-1/40

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पुनः अर्जुन भगवान से यह भी कहता है कि कुल में अधर्म प्रमुख होने पर कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती है और स्त्रीत्व के पतन से अवांछित सन्तानें उत्पन्न होती है (गीता-1/41)। जब स्त्रीत्व भ्रष्ट हो जाता है, तब वर्णसंक्रमण हो जाता है, विभिन्न जातियों का सम्मिश्रण हो जाता है अर्थात् न समाज की परम्पराएं बनी रहती है, न कुल की परम्पराएं बनी रहती है, कुल की संस्कृति नष्ट हो जाती है वे जीते जी अनियत काल के लिए नरक में वास करते हैं। पुनः अर्जुन की मनोदशा व्यथित हो जाती है वह सोचता है कि –

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।

गीता-1/45

हम लोग बड़ा भारी पाप करने लगे हैं जो राज्य के सुख के लोभ से अपने बन्धु-बान्धुओं की हत्या करने के लिए तैयार हो गए हैं। इस प्रकार अर्जुन का विषाद बढ़ता ही जा रहा है, वह अत्यन्त शोकाकुल हो जाता है वह अन्त में इतना तक कह देता है कि मैं किसी भी प्रकार से इन बान्धवों के प्रति हथियार नहीं उठा सकता और मुझ निहत्थे पर यदि ये सभी धृतराष्ट्र के पुत्र अपने हथियार चलाकर मेरा वध भी कर दें तो मेरे लिए वह भी कल्याणकारी होगा। इससे मैं इस पाप कर्म से तथा इसके बाद होने वाले दुष्परिणामों से बच जाऊँगा।

उपरोक्त वर्णित कथनों से स्पष्ट होता है कि अर्जुन युद्ध के विरुद्ध क्यो है? वह एकदम अशोक तो नहीं बन गया था। बल्कि बात यह थी कि युद्ध तो उसकी प्रकृति में बसा हुआ था, उसके स्वभाव का अंग था, क्योंकि वह एक महावीर क्षत्रिय भी तो था। परन्तु जब उसने अपनी आँखों के सामने अपने सगे संबन्धियों को देखा, यह देखा कि इन्हीं रिश्तेदारों को मारकर इनके खून से सने भोगों को भोगने के लिए यह युद्ध लड़ा जा रहा है, जब उसके मन में मोह उत्पन्न हो गया, अस्मिता अर्थात् मोह में फंसकर रह गया।

इसलिए वह युद्ध से पलायन करना चाहता है अर्जुन की तरह हम सब तो अस्मिता अर्थात् जो मै नहीं हूँ उसे मैं समझ लेना 'अस्मिता' है जिससे अर्जुन 'मोह' से ग्रस्त है प्रश्न यह है कि हमारा 'मोह' कैसे दूर हो, हमारी दुविधा कैसे मिटे? इसके लिए हमें भी 'अर्जुन' जैसा ऋजु होना चाहिए, सरल होना चाहिए, मन में जो दुविधा हो उसे अर्जुन की तरह अपने गुरु के सामने बेखटके रख देना चाहिए। जो अर्जुन जैसा सरल शिष्य बन जाता है उसे श्रीकृष्ण जैसा गुरु मिल ही जाता है। मानो अर्जुन अपनी शोकयुक्त अवस्था स्वगुरु श्रीकृष्ण के चरण कमल में समर्पित कर निश्चिंत हो जाना चाहता है।

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