श्रीमद्भगवद्गीता का परिचय
महामुनि भगवान वेदव्यास द्वारा विरचित श्रीमद्भगवद्गीता स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कथित होने के कारण इसके वक्ता स्वयं भगवान एवं श्रोता के रूप में पार्थ अर्जुन हैं। श्रीमद्भगवद्गीता अत्यंत प्राचीन ग्रन्थ एवं संस्कृत साहित्य का एक ऐसा अलौकिक ग्रन्थ है जिसमें वेदों, उपनिषदों एवं दर्शनों से संबंधित उपदेशात्मक ज्ञान को महामुनि वेदव्यासजी ने राजनीतिक जीवन के कर्मक्षेत्र में तथा भविष्य में होने वाले भातृयुद्ध के मानसिक तनाव व भ्रमपूर्ण वातावरण में उत्तर दिया है।
श्रीमद्भगवद्गीता के वैदिक ज्ञान का अर्थ निरहंकार व निःस्वार्थ कर्मों के फलस्वरुप मन की वासनाओं की मुक्ति से है। गीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें 700 श्लोकों में चारों वेदों का का सार वर्णित है। इसकी भाषा सरल एवं गंभीर है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता को अपना ह्रदय बतलाते हुए गीता के विषय में अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा है-
"गीता मे हृदयं पार्थ"
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महाभारत के भीष्म पर्व में गीता धर्म की विस्तृत चर्चा की गई है, सर्वप्रथम भगवान ने इस गीता धर्म का उपदेश विवस्वान सूर्य को इसके पश्चात् सूर्य ने अपने पुत्र मनु इसके पश्चात ईक्ष्वाकु राजा को गीता का उपदेश प्राप्त हुआ। तथा इस प्रकार भू-लोक पर त्रेतायुग से ही गीता का संदेश प्रसारित हुआ।
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श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा काव्य है जिसमें देवी-आसुरी दोनों प्रवृतियों का संग्राम वर्णित है, देवी प्रवृति के प्रति पाण्डव वंश व आसुरी प्रवृति के प्रति कौरव वंश हैं, गीता के अनुसार - "देवी सम्पद्वीमोक्षाय" अर्थात् देवी संपत्ति कम होने पर भी उसे सुसंगठित कर श्रीकृष्ण मार्गदर्शन में यदि लाया जाए तो समग्र रुप में विजय निश्चित् है।
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श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और उसके पश्चात् जीवन के समरांगण से दूर जाने का मन बना लेता है, ठीक उसी प्रकार अर्जुन जो की महाभारत का महानायक है वह अपने सामने आने वाली समस्याओं से भयभीत होकर स्वयं के जीवन और क्षत्रिय धर्म से निराश हो गया है, अर्जुन की तरह ही आज हम सभी कभी न कभी अनिश्चय की स्थिति में या तो हताश हो जाते हैं और या फिर अपनी समस्याओं से उद्विग्न होकर अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं।
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