योगवाशिष्ठ का परिचय
योग वासिष्ठ महारामायण भारतवर्ष के आध्यात्मिक ग्रंथों में बहुत उच्च कोटि का ग्रंथ है। इसमें महर्षि वसिष्ठ द्वारा श्रीरामचंद्र जी को दिये हुए आध्यात्मिक उपदेशों का महत्वपूर्ण संकलन है। योगवासिष्ठ का मूल विषय ब्रह्मवाद या अज्ञातवाद है, अर्थात् संसार का अस्तित्व नहीं है, केवल ब्रह्म का अस्तित्व है, यह इस ग्रन्थ की मूल अवधारणा है जो अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्त से सम्बन्धित है। इसमें ब्रह्म ही केन्द्र है जिसकी परिधि में समस्त क्रियाकलाप होते रहते हैं। इसके अंतर्गत योग विज्ञान की विभिन्न विधाओं की सरल और सुगम व्याख्या देखने को मिलती है।
योगी के जीवन की अत्यन्त गुह्य संभावनाओं और उपलब्धियों का विवेचन इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय है। प्रारंभ से ही संवादात्मक शैली का यह ग्रन्थ, भारतीय चिन्तन की पराकाष्ठा की अभिव्यक्ति कराता है। यह तथ्य इसे मनोविज्ञान के धरातल से ऊपर उठकर परामनोविज्ञान की ओर ले जाता है। मन की असीमित संभावनाओ को इस ग्रन्थ में बड़े ही सूक्ष्म और अन्वेषणात्मक ढंग से बताया गया है।
योगवाशिष्ठ में योग का स्वरुप
योग वाशिष्ठ में योग साधना की तीन विधियों का वर्णन
किया गया है। ये तीन विधियाँ निम्न इस प्रकार हैं -
1. एक तत्व की दृढ़ भावना
2. मन की शान्ति अर्थात् मनोलय
3. प्राणों के स्पन्दन का निरोध
ये तीनों विधियाँ मनुष्य के चित्त की अवस्थाओं को ध्यान में रखकर बताई गई हैं। किसी को ज्ञान का अभ्यास किसी को प्राण निरोध तो किसी को मन शांत करना सरल होता है। योग वाशिष्ठ में कहा गया है कि प्राणों के निरोध की अपेक्षा मन को शांत करना अथवा एक तत्व का दृढ़ अभ्यास करना अधिक सरल है। वशिष्ठ जी कहते हैं कि इन तीनों में से किसी एक का भी अभ्यास करने से तीनों का अभ्यास हो जाता है। इन तीनों विधियों का वर्णन अग्रलिखित रूप में है-
1. एक तत्व की दृढ़ भावना
योग वाशिष्ठ में कहा गया है कि एक तत्व की दृढ़ भावना
से मन शान्त होकर विलीन हो जाता है और प्राणों का स्पन्दन भी रूक जाता है। एक तत्व
के दृढ़ अभ्यास की तीन विधियाँ हैं-
(क) ब्रह्म भावना
(ख) अभाव भावना
(ग) केवली भावना
(क) ब्रह्म भावना- इसमें साधक को सबसे पहले यह निश्चय हो जाना चाहिये कि
संसार में केवल एक ही अनन्त आत्म तत्व और रूप है, ऊर्जा आदि सब
पदार्थ उसी तत्व के भिन्न-भिन्न नाम और रूप हैं तथा इनके अनुरूप मन को तन्मय करने
का प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार ब्रह्माभ्यास करने से मन ब्रह्मकार होकर विलीन
हो जाता है, व प्राणों की गति भी स्वयं ही एक हो जाती है।
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(ख) अभाव भावना- इसका अर्थ है कि समस्त पदार्थों को अत्यन्त असत् समझकर उनके पारमार्थिक अभाव की दृढ भावना करना। जबकि ब्रह्म (आत्मा) के अतिरिक्त इस जगत में और कोई दूसरा पदार्थ है ही नहीं और सब दृश्यगत पदार्थ वस्तुतः भ्रम ही है। इस बात को भली भांति समझकर यह दृढ़ निश्चय कर लेना चाहिए कि पदार्थ है ही नहीं केवल ब्रह्म भावना और संसार की अभाव भावना। ऐसा करने से मन शांत हो जाता है। और अहंभाव और जगत का अनुभव दोनों का लोप होकर आत्मभाव में स्थित हो जाती है।
(ग) केवली भावना- यह उस निश्चय के अभ्यास का नाम है जिसमें केवल एक आत्म तत्व की स्थिति मानी जाय और समस्त दृश्य पदार्थों के असत्य होने की दृढ़ भावना होने के कारण अपने द्रष्टा होने को भी असत् समझा जाय और अपने उस आत्मस्वरूप में स्थिति बन जाय जिसमें द्वैत का कोई भाव ही नहीं रह जाय।
2. मनोलय
योग वाशिष्ठ के अनुसार मन ही संसार को उत्पन्न करने वाला और चलाने वाला है। मन के शान्त हो जाने पर जीवन में परम शक्ति आ जाती है व संसार का लोप हो जाता है। मन के शान्त होने पर जीवन ब्रह्मत्व को प्राप्त हो जाता है। प्राणों का स्पन्दन भी रुक सा जाता है। मन संसार रूपी माया-चक्र की नाभि (केन्द्र बिन्दु) है। इस नाभि रूपी केन्द्र बिन्दु को बल और बुद्धि द्वारा घूमने से रोक लेने पर संसार चक्र की गति भी रूक जाती है। मन को जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है। संसार रूपी दु:ख से मुक्त होने का उपाय केवल मन का निग्रह करना ही है। इसी युक्ति द्वारा मनुष्य को परम शान्ति का अनुभव होता है, बिना इस युक्ति के शुभ गति प्राप्त नहीं होती।
3. प्राण निरोध
योग वाशिष्ठ में
योगाभ्यास की तीसरी विधि प्राण निरोध का वर्णन किया है। जिस प्रकार पंखे का हिलना
बंद होते ही हवा का आना बंद हो जाता है उसी प्रकार प्राण के निरुद्ध होने से मन
शांत हो जाता है। मन की शांति तो प्राण की शांति। आखिर मन क्या है? प्राणों की गति, और प्राणायाम कैसे किया जाता है? इन विषयों की चर्चा योग वाशिष्ठ में विस्तार के साथ की गई
है। प्राणायाम सिद्ध करने की उपायों का वर्णन करते हुए कहा है कि प्राणायाम को भली
प्रकार करने से मन का वैराग्य होना निश्चित है। सभी प्रकार के व्यसनों को त्यागना
भी जरूरी है। साथ ही ध्यान करना अनिवार्य है। इन सब के करने से प्राण निरोध आसानी
से हो जाता है।
प्राण विद्या के अतिरिक्त योग वाशिष्ठ में कुण्डलिनी विद्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ कहा गया है कि कुण्डलिनी विद्या का ज्ञान होने पर साधक उनके द्वारा अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है। संसार के अनुभव से मुक्ति पाने और परमानन्द का अनुभव प्राप्त करने के योग नामक मार्ग की योग वाशिष्ठ के अनुसार सात भूमिकाएं हैं।
योग वाशिष्ठ में वर्णित ज्ञान की सप्त भूमिकाएं -
1. शुभेच्छा
2. विचारणा
3. तनुमानसा
4. सत्वापत्ति
5. असंसक्ति
6. पदार्थ भावना और
7. तुर्गया।
इस प्रकार उपरोक्त वर्णन को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि योग वाशिष्ठ में योग विद्या को सरस व सरल रूप में प्रस्तुत किया गया है। जिसके अभ्यास से सामान्य मनुष्य भी लाभ उठा सकते हैं। साथ ही हमें ज्ञात होता है की योग वाशिष्ठ ग्रन्थ का मूल उद्येश्य मानव जीवन को विभिन्न यौगिक अभ्यासों द्वारा मोक्ष प्राप्त करना है। योग वाशिष्ठ का योग मुख्य विषय ज्ञानयोग ही है जिसमें योग प्राप्ति की रीतियाँ, पद्धतियां ज्ञान को आधार मानकर की गयी है।
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