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वेदों में योग का स्वरूप | Vedon Mein Yog Ka Swaroop | Yoga in Vedas | वेदों में योग

वेदों में योग का स्वरूप

योग भारतीय जीवन पद्धति का एक अति विशिष्ट अंग है और वेद भारतीय संस्कृति का सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। वेदों की संख्या चार है- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्वेद सृष्टि के आरंभ में अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा चार ऋषियों को परमात्मा ने वेद का ज्ञान प्रदान किया। साथ ही योग विद्या का भी वर्णन किया। इन ऋषियों ने भी वैदिक मंत्रों के दर्शन से पूर्व योग साधना अवश्य की होगी इसलिए वेदों में कईं जगह पर योग की चर्चा की गई है। वेद विश्व के ज्ञान-विज्ञान के भंडार हैं। वेदों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय आध्यात्मिक उन्नति करना है। इसके लिये यज्ञ, उपासना, पूजा व अन्य कर्मकाण्डों का वर्णन किया गया है। इन सबसे पूर्व योग साधना का विधान किया गया है। इसी संदर्भ में ऋग्वेद में कहा गया है-

यस्मादृते न सिध्यति यज्ञोविपश्चितश्चन।
स धीनां योगमिन्वति।।

ऋग्वेद (1/18/7)

अर्थात् विद्वानों का कोई भी कर्म बिना योग के पूर्णतः (सिद्ध) नहीं होता। इस बात से यह सिद्ध होता है कि वेदों में भी योग विद्या को कितना महत्व दिया गया है। अर्थात् जिन (इन्द्र-अग्नि) देवता के बिना ज्ञानी का यज्ञ भी सफल नहीं होता, उसी में ज्ञानियों को अपनी बुद्धि और कर्मों का योग करना चाहिए, उसी देव में उन्हें अपनी बुद्धि और कर्मों को अन्य रूप से एकाग्र करना चाहिए।

वेदों-में-योग-का-स्वरूप

वेदों में कहा गया है कि योगाभ्यास के द्वारा प्राप्त विवकेख्याति (ऋतंभरा-प्रज्ञा) ईश्वर की कृपा से ही होती है। वेद के निम्न निर्दिष्ट मंत्र इसी भाव को प्रकट करते हैं-

स द्या नो योगआभुपत् स राये स पुरं ध्याम्।
गमद् वाजेभरा स नः।।
(ऋग्वेद 1/5/3/ सामवेद 1/2/311)

अर्थात् ईश्वर की कृपा से हमें योग (समाधि) सिद्ध होकर विवेकख्याति तथा ऋतंभरा-प्रज्ञा प्राप्त हो और वही ईश्वर अणिमा आदि सिद्धियों सहित हमारे पास आवे। इसी कारण योगसिद्ध के लिए वेदों में प्रार्थना की गई है। योग सिद्धि के लिए वेदों में प्रार्थना करते हुए कहा गया है-

योगे-योगे तवस्तरं वाजे-वाजे हवामहे।
सखाय इन्द्र मूर्तये
(ऋग्वेद 1/30/7/11/शुक्ल यर्जवेद 1/14/3 सा. उ. 1/2/11 अथर्व. 1/6/8)

अर्थात् हम सखा (साधक लोग) प्रत्येक योग में तथा हर मुसीबत में परम ऐश्वर्यवान, इन्द्र का आहृवान करते हैं जब साधक साधना करता है और उसमें विघ्न उत्पन्न होते हैं तो उन्हें दूर करने के लिए परमात्मा से प्रार्थना करता है। वेदों में शरीरस्थ नाड़ियों और प्राण आदि का भी उल्लेख प्राप्त होता है ऋग्वेद में प्राण की महिमा को बताने वाले अनेक मंत्र मिलते हैं। इसे इन्द्रियों का रक्षक बताया गया है। वेदों में मंत्रयोग, लययोग आदि का भी वर्णन प्राप्त होता है।

क चित्रका त्रिवृतो रथस्य क त्रयो बन्धुरो मे सनीलाः।
कदा योगो वाजिनो रास्भस्य येन यज्ञं नासत्यो पयाथः।।
ऋग्वेद (1/31/9)

अर्थात् पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश भूतों से बना यह शरीर रूपी रथ है। इस शरीर रूपी रथ के मध्य के नीचे चक्र हैं। जिनके मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, ये नाम है। वे कहां है। उनका स्थान विशेष कौन सा है, यह हमें ज्ञात नहीं है। जीवधारक बन्धु पुष्प के समान नितान्त रक्तवर्ण कन्दर्प नामक वायु कहां है, अर्थात् उसके निवास स्थान के ज्ञान से भी हम वंचित हैं। शिवस्थान सहस्रदल कमल सहित ऊपर के तीन चक्र जिनके अनाहत विशुद्धि आज्ञा नाम हैं, वे कहां है यह भी हमें ज्ञात नहीं है।

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अर्थात् सर्वशक्ति सम्पन्न आनन्दघन, स्वप्रकाश शिव परमात्मा जो शिव-शक्ति संगम रूप रासलीला शोभित होते हैं। उनका आधार पद् स्थित कुल-कुण्डलिनी का लय किस समय होता है। इसका भी हमें ज्ञात नहीं है।

हे अविनाशी! शिवशक्ति परमपिताआपकी कृपा से लययोग संबंधी ये समस्त बातें मुझे ज्ञात होंऔर इन्हें जानकर मैं लययोग का अभ्यास करूं। इस प्रकार हम देखते हैं कि योग विद्या का वेदों में विशेष स्थान प्राप्त होता है। वेद पूर्ण पूरुष जगदीश्वर की कृति है। उनमें आध्यात्मिक, आदिदैविक तथा आाधिभौतिक तीनों प्रकार के भाव हैं। अर्थात् ये सभी विधायें वेदों में हैं। इसलिये वेदों में योग का जगह-जगह वर्णन प्राप्त होता है।

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