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आयुर्वेद में योग का स्वरूप | Ayurved Mein Yog Ka Swaroop | Ayurveda in Hindi | आयुर्वेद में योग

आयुर्वेद का परिचय

आयुर्वेद और योग दोनों ही अत्यन्त प्राचीन विद्याएँ हैं दोनों का ही विकास और प्रयोग समान उद्देश्य के लिए एक ही देश, काल में हुआ। विद्वानों की मान्यता है कि महर्षि पतंजलि ने अलग-अलग नामों से मानव कल्याण के लिए तीन ग्रंथों की रचना की। जिनके द्वारा मनुष्य मात्र का कल्याण हो सके उन्होंनेचित्त की शुद्धि के लिए 'पातंजल योगसूत्र', वाणी की शुद्धि के लिए 'व्याकरण महाभाष्य' (व्याकरण शास्त्र) तथा शरीर शुद्धि के लिए 'चरक संहिता का निर्माण किया" इससे स्पष्ट होता है कि योग एवं आयुर्वेद का उद्देश्य समान है।

आयुर्वेद-आयु+वेद। आयु का अर्थ जीवन और वेद का अर्थ ज्ञान है। आयुर्वेद को आरोग्य के लिए एक बहुउद्देशीय विज्ञान के रूप में विकसित किया गया है। आयुर्वेद का लक्ष्य बताते हुए चरक संहिता में कहा गया है-

धर्मार्थ कामोक्षानां आरोग्यम् मूलमुत्तमम्।

अर्थात् आयुर्वेद की सहायता से जीवन के चारों लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।

Ayurveda Me Yog Ka Swaroop

आयुर्वेद में योग

योग और आयुर्वेद दोनों की समान शैक्षणिक पद्धतियाँ है। दोनों में औषधि, मंत्र, जप और समाधि आदि पर मुख्य रूप से बल दिया गया है। जिस प्रकार योग साधना के आठ अंगों का वर्णन किया गया है उसी प्रकार आयुर्वेद में भी आरोग्यता के लिए आठ अंगों का चिकित्सा के रूप में वर्णन किया गया है।

महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रन्थ योगसूत्र में पञ्च क्लेशों का वर्णन किया है।

योगसूत्र में वर्णित पञ्च क्लेश-

1. अविद्या

2. अस्मिता

3. राग

4. द्वेष और

5. अभिनिवेष

महर्षि ने इन पांच क्लेशों को बंधन का कारण बताया गया है। इनसे मन में कालुष्य उत्पन्न होता है। इसका निवारण चित्त शुद्धि के द्वारा ही संभव है। आयुर्वेद के महर्षियों ने भी इस विषय का सम्यक निरूपण इसी रूप में किया है। आयुर्वेद की संहिताएँ शारीरिक रोगों के लक्षण एवं उनकी चिकित्सा के साथ-साथ मनो-आध्यात्मिक भावों का भी विवेचन करती है। आयुर्वेद और योग के न केवल विषय और उद्देश्य एक समान हैं अपितु इनकी शिक्षण पद्धति, गुरूपदेश परम्परा भी एक समान हैं आयुर्वेद में वैद्य की चार वृत्तियाँ बतायी गयी है।

इसे योगसूत्र में मैत्रेय, करूणा, मुदिता और उपेक्षा के रूप में चित्त प्रसादन के लिए बताया गया है।

1. मैत्रेय- इसका अर्थ प्राणी मात्र के साथ मित्रता का व्यवहार करना है। आयुर्वेद में भी कहा गया है कि ये वैद्य के लिए प्राणी मात्र विशेष रूप से औषधियों से मित्रता रखना आवश्यक है।

2. करुणा- इसी करुणा का भाव ही वैद्य के मन में होना आवश्यक है क्योंकि उसके चित्त में सेवा का भाव पल्लवित होगा।

3. मुदिता- मुदिता के स्थान पर आचार्य चरक कहते हैं कि एक चिकित्सक को रोगियों की प्रेमपूर्वक और प्रसन्नतापूर्वक चिकित्सा करनी चाहिए।

4. उपेक्षा- असाध्य रोगों की उपेक्षा करते हुए चिकित्सारत रहना चाहिये।

इन चारों वृत्तियों के पालन से चित्त में कोई विकार नहीं होता। महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रन्थ योगसूत्र में अष्टांग योग का वर्णन किया है।

योगसूत्र में वर्णित अष्टांग योग-

1. यम

2. नियम

3. आसन

4. प्राणायाम

5. प्रत्याहार

6. धारणा

7. ध्यान और

8. समाधि

इन सभी को आयुर्वेद में दूसरे शब्दों में सद्वृत्त, आचार रसायन, दिनचर्या, ऋतुचर्या आदि के अन्तर्गत वर्णित किया है।

Ayurveda Mein Yog Ka Swaroop

योगसूत्र के नियमों को सद्वृत्त के रूप में वर्णित किया गया है तथा रसायन या औषधि सेवन पूर्व उनका पालन करना अनिवार्य बताया गया है। अहिंसा को एक महत्वपूर्ण आचार रसायन के रूप में वर्णन किया गया है इसी प्रकार सत्य और अस्तेय का पालन भी रोगों को दूर करने में उपयोगी माना गया है। जीवन के तीन उपस्तम्भों में ब्रह्मचर्य की व्याख्या की गई हैं। आचार रसायन के अन्तर्गत मैथुन और मद्य से भी निवृत्त रहना बताया गया है। आचार्य चरक ने कहा है कि ब्रह्मचर्य के द्वारा ज्वर से छुटकारा मिलता है अपरिग्रह को भी सद्बत के रूप में गिनाया गया है।

इसी प्रकार योग के दूसरे अंग नियम के अंगों को भी चिकित्सक के लिए आवश्यक माना है। एक चिकित्सक के लिए शौच का पालन अनिवार्य है उसे बाह्य शुद्धि के साथ-साथ मानसिक स्तर पर भी शुद्धि का पालन करना चाहिए। उसको संतोषी स्वभाव का होना चाहिए। स्वाध्यायशील तथा ईश्वर में आस्थावान होना चाहिए। मानसिक रोगों की चिकित्सा के लिए ईश्वर का ध्यान पूजा पाठ आदि का आयुर्वेद में निर्देश मिलता है। आसनों का आयुर्वेद में हठयोग के समान तो वर्णन प्राप्त नहीं होता है किन्तु यहाँ स्थिर एवं सुखपूर्वक बैठने की अनेक अवस्थाओं का वर्णन मिलता है।

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अध्ययन विधि में कहा गया है कि समतल और पवित्र स्थान सुखपूर्वक अपने दोष एवं त्रुटियों को समझने के लिए एकाग्र मन से बैठना चाहिए। आयुर्वेद में वायु को प्राण की संज्ञा प्रदान की गई है प्राण, उदान, व्यान, समान और अपान को आत्मा के रूप में वर्णित किया गया है ये शरीर की सभी चेष्टाओं का नियंत्रण एवं प्रणयन करती हैं। सभी इन्द्रियों को अपने विषयों में प्रवृत्त करने वाली है, अत: इनका नियंत्रण करना चाहिए। वायु का यह नियंत्रण ही आयुर्वेद में प्राणायाम के नाम से जाना जाता है।

प्रत्याहार का वर्णन करते हुए कहा है कि स्वस्थ रहने के लिए इन्द्रियों का विषयों के साथ अतियोग, मिथ्या योग, अयोग नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार धारणा, ध्यान और समाधि के महत्व को आयुर्वेद में स्वीकार किया गया है समाधि की अवस्था को आत्मानुभूति का कारण बताया है। साथ ही मानसिक रोगों कि चिकित्सा में ध्यान और समाधि को उपयोगी बताया है।

हठयोग में शरीर शोधन के लिए छः प्रधान कर्म बताये हैं, जिन्हें षट्कर्म के नाम से जाना जाता है। आयुर्वेद में भी शोधन कर्म के लिए पंचकर्म का उपयोग किया जाता है। इन कर्मों का उपयोग स्वस्थ एवं अस्वस्थ दोनों के लिए लाभदायक है। जिस प्रकार योग में अष्ट सिद्धियों अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व का वर्णन किया गया है उसी प्रकार आयुर्वेद में भी चरक ने ऐश्वर्यों का वर्णन योगियों की स्वाभाविक शक्ति के रूप में किया है। ये आठ लक्षण योगी में दिखाई देने लगते हैं। ये ऐश्वर्य है-

आवेश चेतसो ज्ञानम् अर्थानाम् छन्दतः

क्रिया, ईश्वरीय-दृष्टि, ईश्वरीय कर्णक्षमता, ईश्वरीय स्मरण शक्ति, ईश्वरीय कान्ति तथा प्रत्यक्ष तथा अंर्तध्यान होने की क्षमता ये योग की अष्टसिद्धियों के समान ही हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि योग और आयुर्वेद एक ही प्रकार के विज्ञान है। दोनों का उद्देश्य एक ही है। दु:खों से छुटकारा दिलाना और आत्मानुभूति। दोनों का विकास एक ही समय में एक ही देश, समकालीन विद्वानों के द्वारा हुआ, दोनों ही मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए कार्य करते हैं। दोनों के द्वारा व्यक्ति का शारीरिक एवं आत्मिक विकास होता है। दोनों से आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के दु:ख दूर होते हैं।

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