पंचकर्म का परिचय
पंचकर्म चिकित्सा आयुर्वेद का एक प्रमुख शुद्धिकरण उपचार है। पंचकर्म का अर्थ पाँच विभिन्न चिकित्साओं का संमिश्रण है। इस पंचकर्म प्रक्रिया का प्रयोग कुपोषण एवं शरीर को बीमारियों द्वारा छोड़े गये विषैले पदार्थों से निर्मल करने के लिये होता है। पंचकर्म शब्द दो शब्दों के संयोग से बना है। जहाँ पंच संख्यावाचक शब्द है वही कर्म प्रवृत्ति या क्रिया वाचक शब्द है। पंचकर्म शब्द में संख्यावाचक शब्द पंच प्रथम आया है, यह इसकी प्रधानता का बोधक है। आचार्य चरक की यह विशेष शैली है विषय निरुपण की, यथा- पंच गुल्मा, षडतीसारा, पंच हिक्का एवं सप्त कुष्ठानि आदि।
कुष्ठ प्रकरण में कुष्ठों की संख्या सात, ग्यारह एवं अट्ठारह बताते हुए कुष्ठों की संख्या असंख्य भी कहा है, अर्थात् कुष्ठ अनेक होते हुए भी मुख्यतः सात, ग्यारह एवं अट्ठारह होते हैं। इसी प्रकार से चिकित्सा में प्रयुक्त कर्म अनेकों हैं, परन्तु मुख्य एवं प्रधान कर्म पाँच माने गये हैं और इनका समुहीकरण पंचकर्म कहलाता है।
पंचकर्म के प्रकार
1. वमन कर्म
2. विरेचन कर्म
3. अनुवासन वस्ति कर्म
4. निरुह वस्ति कर्म
5. नस्य कर्म
प्रश्न यह उठता है कि ये पाँच कर्म ही चिकित्सा में प्रधान क्यों माने जाते है? तो इसका सरल उत्तर है कि चिकित्सा प्रकार (शमन एवं संशोधन चिकित्सा) में संशोधन चिकित्सा प्रधान होती है और पंचकर्म शोधन प्रधान चिकित्सा है, अत: यह मुख्य या प्रधान है। पंचकर्म शब्द का स्पष्ट प्रयोग सर्वप्रथम चरक संहिता, सूत्र स्थान के अपामार्गतण्डुलीयाध्याय में किया गया है-
पञ्च कर्माणि कुर्वी माता कालौ विचारयन।।
तथा सुश्रुत संहिता में इसका उल्लेख स्पष्ट रूप में तेरहवें अध्याय के
चिकित्सा प्रकरण में किया गया है-
योगेनानेन मतिमान् साधयेदपि कुष्ठिनम्।।
अष्टांग हृदयकार ने “सिराव्यधविधि'' अध्याय में पंच कर्म का उल्लेख किया है-
स्नेहपीते प्रयुक्तेषु तथा पंचातु कर्मसु।
इन उदाहरणों के अलावा इन तीनों संहिताओं में अनेकों बार पंचकर्म शब्द का उल्लेख प्राप्त होता है। सुश्रुत संहितोक्त पंचकर्मों के प्रकरण में यह विवाद भी उत्पन्न होता है कि पंचकर्मो में आचार्य सुश्रुत ने रक्तमोक्षण को भी एक कर्म माना है।
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वास्तव में रक्तमोक्षण की उपयोगिता को देखते हुए सुश्रुत संहिता के टीकाकारों ने अपनी - अपनी टीका एवं व्याख्या में पंचकर्म में रक्तमोक्षण को संम्मिलत कर वमन, विरेचन, वस्ति (अनुवासन, निरुह) नस्य एवं रक्तमोक्षण ऐसी व्यवस्था दी है। सुश्रुत संहिता में ऐसा वर्णन क्रम कहीं प्राप्त नहीं होता है, अगर वर्णन करना होता तो शिरोविरेचन के बाद रक्तमोक्षण कर्म का वर्णन आता जो नही हैं। अस्तु पंचकर्मों में रक्तमोक्षण कर्म नही आता हैं, परन्तु कोई दुराग्रह न रखते हुए एवं रक्तमोक्षण की शरीर-धातु, शोधन क्षमता के कारण इसे पंचकर्म प्रकरण में स्थान देना चाहिए।
पंचकर्म तो पाँच मुख्य कर्म है, इसके सहायक यथा- पाचन, स्नेहन, स्वेदन, एवं संसर्जन कर्म आदि भी पंचकर्म प्रकरण के कर्म है। पंचकर्म प्रकरण विस्तार में शिरोबस्ति, नेत्रपूरण, कर्णपूरण, कटि बस्ति आदि का आज प्रयोग हो रहा है तो रक्तमोक्षण तो सद्य: लाभकारी कर्म है तथा रक्ताश्रित कुपित पित्त के शोधन में सहायक होता है। इस कारण इसका पंचकर्म प्रकरण में समावेश स्वागत योग्य है, परन्तु यह कर्म शल्य कर्म में दक्ष चिकित्सक को ही करना चाहिए अन्यथा इसके दुष्परिणाम हो सकते हैं।
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