सांख्य दर्शन का परिचय
सांख्य दर्शन भारतीय दर्शनों के वैदिक दर्शनों के श्रेणी के अंतर्गत सबसे प्राचीन दर्शन माना जाता है। सांख्य का अर्थ महर्षि कपिल द्वारा प्रतिपादित सांख्य शास्त्र से लिया जाता है। सांख्य शास्त्र के प्रवर्तक महर्षि कपिल हैं, इस शास्त्र का नाम सांख्य इसलिए पड़ा क्योंकि इसमें गिने-गिनायें कुल 25 तत्व माने गये हैं। जैसे की कहा भी गया है -
संख्यया कृतमिति सांख्यं
सांख्य अर्थात् गिनाने वाला शास्त्र। बाद में सांख्य का अर्थ बहुत व्यापक हो गया और उसमें प्रत्येक प्रकार के तत्वज्ञान का समावेश होने लगा। इसके दो मुख्य ग्रंथ है कपिल ऋषि द्वारा प्रतिपादित सांख्य सूत्र तथा सांख्य कारिका। इनमें पुरुष, प्रकृति और प्रकृति के 23 विकार इस प्रकार कुल मिलाकर सांख्य में पच्चीस तत्वों का वर्णन किया गया है।
सांख्य दर्शन में योग
सांख्य और योग को एक ही माना गया है। जैसे की भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद् भगवद्गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि-
सांख्य योगो पृथक्वाला प्रवदन्ति न पंडिताः।
सांख्य और योग दोनों एक ही है इनको अलग-अलग मानना मूर्खता है, विद्वता नहीं है। जिस प्रकार न्याय व वैशेषिक के विचारों में समानता है। मीमांसा और वेदान्त एक दूसरे के पूरक हैं उसी प्रकार योग और सांख्य भी एक सिद्धान्तों के पोषक हैं।
सांख्य के अनुसार प्रलयावस्था में प्रकृति सूक्ष्म रूप में रहती है। जिसे प्रधान, मूल, अन्यवत आदि नामों से पुकारा जाता है। सांख्य प्रकृति में सत्, रज और तम तीन गुणों की अवस्था मानता है। प्रलयावस्था में ये तीनों गुण समान अवस्था में रहते हैं सांख्य प्रकृति को जड़ मानता है तथा साथ ही विकारी भी मानता है इसके विपरीत दूसरे चेतन अविकारी और संख्या में अनेक हैं।
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पंचमहाभूतों से स्थूल जगत का निर्माण होता है। सांख्य की सृष्टि प्रक्रिया की इस अवधारणा को योग ज्यों का त्यों स्वीकार करता है अन्तर केवल इतना है कि सांख्य में जो पुरुषों की संख्या अनेक मानी है। योग उनमें एक पुरुष विशेष को मानते हुए ईश्वर की मान्यता को जन्म देता है। पातंजल योगसूत्र में कहा गया है-
योगसूत्र (1/25)
अर्थात्, पुरुषों में एक पुरुष ऐसा है जो सभी प्रकार के क्लेशों और कर्म
संस्कारों से रहित है वह पुरुष विशेष ही ईश्वर है। सांख्य को कुछ लोग अनीश्वरवादी
कहते हैं क्योंकि उसमें ईश्वर का वर्णन नहीं किया ईश्वर के संबंध में सांख्य केवल
इतना ही कहता है- कि ईश्वर नहीं है विचार करने पर उचित प्रतीत नहीं होता। सांख्य
का तात्पर्य यहाँ यह है कि ईश्वर असिद्ध है अर्थात् शब्दों के माध्यम से उसको
सिद्ध नहीं किया जा सकता है।
पातंजल योग सूत्र में अभ्यास और वैराग्य को चित्तवृत्ति निरोध का उपाय माना गया है सांख्य भी वैराग्य के द्वारा ही ज्ञान की प्राप्ति मानता है। योग दर्शन की मान्यता है कि चित्त वृत्तियों का निरोध होने पर आत्मा की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है। सांख्य का भी कहना है कि मन की वृत्तियों से निवृत्त होने पर पुरुष का उपराग शांत हो जाता है और वह अपने स्व में स्थित हो जाता है। अर्थात् अपने आपको जान लेता है।
सांख्य ने मन की पांच भावात्मक अवस्थाएँ बतायी हैं-
1. अविद्या
2. अस्मिता
3. राग
4. द्वेष और
5. अभिनिवेष।
पातंजल योग सूत्र में क्लेश के सिद्धान्त के अन्तर्गत इनका विस्तृत
वर्णन किया गया है। ये क्लेश योगाभ्यास में विघ्न के रूप में उपस्थित होते हैं।
इन्हें पंचक्लेश के नाम से जाना जाता है। सांख्य और योग दोनों ही अविद्या की उपस्थिति को स्वीकारते हैं।
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सांख्य मुक्ति के लिए ज्ञान को साधन मानता है उसके अनुसार जब साधक तत्वों को यथार्थरूप में जान लेता है तो उसका अज्ञान नष्ट होकर ज्ञान का उदय होता है जिससे वह सभी दु:खों से छुटकारा प्राप्त कर लेता है। किन्तु ज्ञान प्राप्ति के लिये योग के अंगों का सहारा लेना भी सांख्य को मान्य है। सांख्य कहता है कि साधना चाहे ज्ञान की हो उसके लिये भी स्थिर आसन में बैठना आवश्यक है क्योंकि ज्ञान प्राप्ति के लिए चित्त का एकाग्र होना अति आवश्यक होता है।
चलते-फिरते चित्त एकाग्र नहीं हो सकता इसलिये एक स्थान पर स्थिर बैठकर चित्त की वृत्तियों को शांत करने का प्रयास करना चाहिए। ज्ञान प्राप्ति में सांख्य 'ध्यान' का महत्ता को भी स्वीकार करता है क्योंकि ध्यान के अभ्यास से व्यक्ति निर्विषय हो जाता है जिसे समाधि की अवस्था कहते हैं। इसी में ज्ञान का उदय होता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। सांख्य में ज्ञान प्राप्ति की कोई निश्चित साधना पद्धति वर्णित नहीं की गई किन्तु फिर भी योग के अंगों का सहारा लेना उचित माना है। योग भी सांख्य के तत्वों की व्याख्या को ज्यों का त्यों स्वीकार करता है। इसलिये सांख्य और योग दोनों समान तंत्र हैं क्योंकि दोनों का लक्ष्य दु:खों से छुटकारा प्राप्त करना है व दोनों एक ही प्रकार के सिद्धान्तों पर आधारित है।
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