योगदर्शन एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण और साधकों के लिये परम उपयोगी ग्रन्थ है। जिस प्रकार पूर्व में हमने महर्षि पतंजलि के सम्पूर्ण जीवन परिचय वाली पोस्ट में चर्चा की थी की योगसूत्र ग्रन्थ महर्षि पतंजलिकृत सभी ग्रंथों में से एक है। इसमें अन्य दर्शनों की भाँति खण्डन-मण्डन के लिये युक्तिवाद का अवलम्बन न करके सरलतापूर्वक बहुत ही कम शब्दों में अपने सिद्धान्त का निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थ पर अब तक संस्कृत, हिंदी और अन्यान्य भाषाओं में बहुत भाष्य और टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं।
महर्षि पतंजलि ने पातंजल योगसूत्र ग्रंथ को चार भागों अर्थात् चार अध्यायों में बाँटा है, जिन्हें पाद के नाम से जाना जाता है।
योग दर्शन के चार पाद -
1. समाधिपाद - 51 सूत्र
2. साधनपाद - 55 सूत्र
3. विभूतिपाद - 55 सूत्र
4. कैवल्यपाद - 34 सूत्र
इन चारों पादों का परिचय निम्नलिखित इस प्रकार है-
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1. समाधिपाद
योगदर्शन के प्रथम पाद में योग के
स्वरूप, लक्षण और योग की प्राप्ति के उपायों
का वर्णन करते हुए चित्तवृत्तियों के पाँच भेद के साथ उनके लक्षण बतलाये गये हैं।
वहाँ सूत्रकार ने निद्रा को भी चित्त की वृत्तिविशेष के अन्तर्गत माना है (योग० १|१०), अन्य दर्शनकारों की भाँति इनकी मान्यता में निद्रा वृत्तियों का
अभावरूप अवस्था विशेष नहीं है। तथा विपर्ययवृत्ति का लक्षण करते समय उसे
मिथ्याज्ञान बताया है।
अत: साधारण तौर पर यही समझ में आता है कि दूसरे पाद में 'अविद्या' के नाम से जिस प्रधान क्लेश का वर्णन किया गया है (योग० २|५), वह और चित्त की विपर्ययवृत्ति दोनों एक ही हैं; परंतु गम्भीरता पूर्वक विचार करने पर यह बात ठीक नहीं मालूम होती। ऐसा मानने से जो-जो आपत्तियाँ आती हैं, उनका दिग्दर्शन सूत्रों की टीका में कराया गया है (योग० १|८; २|३,५ की टीका)। द्रष्टा और दर्शन की एकतारूप अस्मिता-क्लेश के कारण का नाम 'अविद्या' है (योग० २|२४), वह अस्मिता चित्त की कारण मानी गयी है (योग० १|४७; ४|४)।
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इस पाद के सत्रहवें और अठारहवें सूत्रों में समाधि के लक्षणों का वर्णन बहुत ही संक्षेप में किया गया है। उसके बाद इकतालीसवें से लेकर इस पाद की समाप्ति तक समाधि का कुछ विस्तार से फिर से वर्णन किया गया है, परन्तु विषय इतना गम्भीर है कि समाधि की वैसी स्थिति प्राप्त कर लेने के पहले उसका ठीक-ठीक भाव समझ लेना बहुत ही कठिन है।
प्रधानतया योग के मुख्य तीन भेद माने गये हैं- एक सविकल्प, दूसरा निर्विकल्प और तीसरा निर्बीज। इस पाद में निर्बीज समाधि का उपाय प्रधानतया पर-वैराग्य को बताकर (योग० १|१८) उसके बाद दूसरा सरल उपाय ईश्वर की शरणागति को बतलाया है (योग० १|२३), श्रद्धालु आस्तिक साधकों के लिये यह बड़ा ही उपयोगी है। ईश्वर का महत्व स्वीकार कर लेने के कारण इनके सिद्धान्त में मुक्त एवं बद्ध पुरुषों की ईश्वर से भिन्नता एवं अनेकता सिद्ध होती है।
योगदर्शन की तात्त्विक मान्यता प्राय: सांख्य शास्त्र से मिलती-जुलती है। कई लोग यद्यपि सांख्य शास्त्र को अनीश्वरवादी बतलाते हैं, परंतु सांख्यशास्त्र पर भलीभाँति विचार करने पर यह कहना ठीक मालूम नहीं होता; क्योंकि सांख्यदर्शन के तीसरे पाद के ५६ वें और ५७ वें सूत्रों में स्पष्ट ही साधारण पुरुषों की अपेक्षा ईश्वर की विशेषता स्वीकार की गयी है। अत: सांख्य और योग के तात्त्विक विवेचन में वर्णन शैली के अतिरिक्त और कोई मतभेद प्रतीत नहीं होता।
उपर्युक्त सम्प्रज्ञात योग के दो भेद हैं। उसमे जो सविकल्पयोग है, वह तो पूर्वावस्था है, उसमें विवेकज्ञान नहीं होता। दूसरा जो निर्विकल्प योग है, जिसे निर्विचार समाधि भी कहते हैं; वह जब निर्मल हो जाता है (योग० १|४७), उस समय उसमें विवेकज्ञान प्रकट होता है, वह विवेकज्ञान पुरुषख्याति तक हो जाता है (योग० २|२८; ३|३५) जो कि पर-वैराग्य का हेतु है (योग० १|१६)। तब चित्त में कोई भी वृत्ति नहीं रहती, यह सर्ववृत्ति निरोधरूप निर्बीज समाधि है (योग० १|५१)। इसी को असम्प्रज्ञात योग तथा धर्ममेघ समाधि (योग० ४|२९) भी कहते हैं, इसकी विस्तृत व्याख्या यथास्थान की गयी है। निर्बीज समाधि ही योग का अन्तिम लक्ष्य है, इसी से आत्मा की स्वरूप प्रतिष्ठा या यों कहिये कि कैवल्य स्थिति होती है (योग० ४|३४)।
निरोध अवस्था चित्त का या उसके कारणरूप तीनों गुणों का सर्वथा नाश नहीं होता; किंतु जड-प्रकृति-तत्व से जो चेतनतत्व का अविद्या जनित संयोग है उसका सर्वथा अभाव हो जाता है।
2. साधनपाद
इस दूसरे पाद में अविद्यादि पंच क्लेशों को समस्त दु:खों का कारण बताया गया है, क्योंकि इनके रहते हुए मनुष्य जो कुछ भी कर्म करता है, वे सब के सब संस्काररूप से अन्त:करण में इकट्ठे होते रहते हैं, उन संस्कारों के समुदाय का नाम ही कर्माशय है। इस कर्माशय के कारणभूत क्लेश जब तक रहते हैं, तब तक जीव को उनका फल भोगने के लिये नाना प्रकार की योनियों में बार-बार जन्मना और मरना पड़ता है एवं पापकर्म का फल भोगने के लिये घोर नरकों की यातना भी सहन करनी पड़ती है। पुण्यकर्मों का फल जो अच्छी योनियों की और सुखभोग सम्बन्धी सामग्री की प्राप्ति है वह भी विवेक की दृष्टि से दुःख ही है (योग० २|१५)।
अतः समस्त दुःखों का सर्वथा अत्यन्त
अभाव करने के लिये क्लेशों का मूलोच्छेदन करना अत्यंत आवश्यक है। इस पाद में उनके
नाश का उपाय निश्चल और निर्मल विवेकज्ञान को (योग० २|२६) तथा उस
विवेकज्ञान की प्राप्ति का उपाय योगसम्बन्धी आठ अंगों के अनुष्ठान को (योग० २|२८) बताया है।
3. विभूतिपाद
इस तीसरे विभूतिपाद में धारणा, ध्यान और समाधि इन तीनों का एकत्रित नाम 'संयम' बतलाकर भिन्न-भिन्न ध्येय पदार्थों
में संयम का भिन्न-भिन्न फल बतलाया है; उनको योग का महत्व, सिद्धि और विभूति
भी कहते हैं। इनका वर्णन यहाँ ग्रन्थकार ने समस्त ऐश्वर्य में वैराग्य उत्पन्न
करने के लिये ही किया है।
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यही कारण है कि इस पाद के सैंतीसवें, पचासवें और इक्यावनवें में एवं चौथे पाद के उनतीसवें सूत्र में उनको
समाधि में विघ्नरूप बताया है। अत: साधक को भूलकर भी सिद्धियों के प्रलोभन में नहीं
पड़ना चाहिये।
4. कैवल्यपाद
इस चौथ पाद में कैवल्यपाद प्राप्त करने योग्य चित्त के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है (योग० ४|२६) । साथ ही योगदर्शन के सिद्धान्त में जो-जो शंकाएँ हो सकती हैं, उनका समाधान किया गया है।
अन्त में धर्ममेघ-समाधि का वर्णन करके (योग० ४|२९) उसका फल क्लेश और कर्मों का सर्वथा अभाव (योग० ४|३०) तथा गुणों के परिणाम-क्रम की समाप्ति अर्थात् पुनर्जन्म का अभाव बताया गया है (योग० ४|३२) एवं पुरुष को मुक्ति प्रदान करके अपना कर्तव्य पूरा कर चुकने के कारण गुणोंके कार्य का अपने कारण में विलीन हो जाना अर्थात् पुरुष से सर्वथा अलग हो जाना गुणों की कैवल्य-स्थिति और उन गुणों से सर्वथा अलग होकर अपने रूप में प्रतिष्ठित हो जाना पुरुष की कैवल्य स्थिति बतलाकर (योग० ४|३४) ग्रन्थ की समाप्ति की गयी है।
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