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घेरण्ड संहिता का परिचय | Gheranda Samhita in Hindi | घेरण्ड संहिता परिचय

घेरंड संहिता का परिचय

महर्षि घेरण्ड द्वारा रचित घेरण्ड संहिता एक जनसाधारण के लिए व्यावहारिक योग पर लिखा गया साहित्य है। महर्षि घेरण्ड की इस कृति से मालूम पड़ता है कि वे एक वैष्णव सन्त रहे होंगे, क्योंकि उनके मन्त्रों में विष्णु की चर्चा की गयी है। "जलं विष्णुं थलं विष्णु" अर्थात् जल में विष्णु हैं, थल में विष्णु हैं। एक-दो स्थानों पर नारायण की चर्चा की गयी है, जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्होंने वैष्णव सिद्धान्त को अपने जीवन में अपनाया था और साथ-ही-साथ एक सिद्ध हठयोगी भी थे। उन्होंने योग को जो स्वरूप दिया, उसमें शरीर से प्रारंभ करके आत्मतत्व की प्राप्ति तक की जानकारी दी गयी है। अर्थात् अभ्यासों की रूप-रेखा बतायी गयी है।

घेरण्ड संहिता के प्रथम प्रतियों से आज यह अनुमान लगाया जाता है कि घेरण्ड संहिता 17वीं शताब्दी का ग्रन्थ है। वैसे महर्षि घेरण्ड का जन्म कहाँ हुआ था या वे किस क्षेत्र में रहते थे, यह कोई नहीं जानता। घेरण्ड संहिता की ग्रन्थ की प्रतियों में पहली प्रति सन् 1804 की है। महर्षि घेरण्ड द्वारा दी गई योग की शिक्षा सप्तांग योग के नाम से जानी जाती है। अन्य ग्रन्थों में अष्टांग योग की चर्चा की गयी है, लेकिन हठयोग के कुछ ग्रन्थों में योग के छ: अंगों का वर्णन किया गया है। 'हठरत्नावली' में, जिसके प्रणेता महायोगिन्द्र श्री निवास भट्ट थे, चतुरंग योग है। गोरखनाथ द्वारा लिखित 'गोरक्ष शतक' में षडांग योग का वर्णन किया गया है।

घेरण्ड-संहिता-का-परिचय By Yoga And Ayurveda Science

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एक युग की आवश्यकता के अनुसार, समाज की आवश्यकता के अनुसार लोगों ने योग की कछ पद्धतियों को प्रचलित किया। सम्भवतः यह कारण भी हो सकता है कि एक जमाने में धारणा यह थी कि योगाभ्यास केवल विरक्त, त्यागी, साधु या महात्मा ही कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें योग के प्रारम्भिक यम और नियमों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं पड़ती होगी। इसलिए यम और नियम को बहुत स्थानों से हटाया गया है। उनका वर्णन नहीं किया गया है। लेकिन जैसे-जैसे युग परिवर्तित होता गया और जनसाधारण का योग के प्रति रुचि बढ़ने लगा। बाद के मनीषियों एवं विचारकों ने यम और नियम को भी योग की परिभाषा के रूप में जोड़ दिया।

घेरण्ड संहिता में सर्वप्रथम शारीरिक शुद्धियों की क्रियाओं की चर्चा की गयी है जिन्हें षट्कर्म कहा जाता है, जो निम्न हैं-

घेरंड संहिता में वर्णित षट्कर्म

1. धौति- पेट के ऊपरी भाग और भोजन नली की सफाई

2. वस्ति- आँतों की सफाईजिससे हमारे शारीरिक विकार दूर हो जाएँशारीरिक विकार उत्पन्न न हों

3. नेति- नाक की सफाई

4. नौलि- पेट, गुर्दे इत्यादि का व्यायाम

5. त्राटक- मानसिक एकाग्रता की एक विधि

6. कपालभाति- प्राणायाम का एक प्रकार

उपरोक्त षट्कर्मों को हठयोग के छ: अंग माने जाते हैं। शरीर शुद्धि की इन क्रियाओं को महर्षि घेरण्ड ने योग का पहला आयाम माना है। इसके बाद आसनों की चर्चा की है जिन्हें दूसरा आयाम माना है। महर्षि घेरण्ड ने घेरण्ड संहिता में इस प्रकार के आसनों की चर्चा की है, जिनसे शरीर को स्थिरता एवं दृढता की प्राप्त होती है। यहाँ पर भी आसनों का उद्देश्य शरीर पर पूर्ण नियन्त्रण के पश्चात् ऐसी स्थिति को प्राप्त करना है, जिसमें शारीरिक क्लेश, या दर्द उत्पन्न न हो।

तीसरे आयाम के अन्तर्गत वे मुद्राओं की चर्चा करते हैं। मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं। महर्षि घेरण्ड ने पच्चीस मुद्राओं का वर्णन किया है, जिनके द्वारा हमारे भीतर प्राणशक्ति के प्रवाह को नियन्त्रित किया जा सकता है। उनका कहना है कि प्राण हमारे शरीर के भीतर शक्ति और ताप उत्पन्न करते हैं। उच्च साधना में जब व्यक्ति लम्बे समय तक एक अवस्था में बैठता है, तो उसके शरीर से गर्मी निकलती है। शरीर का तापमान कम हो जाता है, क्योंकि हमारे भीतर प्राणशक्ति नियन्त्रित नहीं है। लेकिन मुद्राओं के अभ्यास द्वारा हम प्राणशक्ति या ऊर्जा को अपने शरीर में वापस खींच लेते हैं, उसे नष्ट नहीं होने देते। प्राण को शरीर के भीतर रोकने के लिए महर्षि घेरण्ड ने मुद्राओं का वर्णन किया है।

मुद्राओं के बाद चौथे आयाम के रूप में महर्षि घेरण्ड ने प्रत्याहार का वर्णन इस उद्देश्य के साथ किया है कि जब शरीर शान्त और स्थिर हो जाए, प्राणों का व्यय न हो, वे अनियन्त्रित न रहें, हमारे नियन्त्रण में आ जायें, तब मन स्वत: अन्तर्मुखी हो जाएगा। पहले हम अपने शरीर को शुद्ध कर लेते हैं। शरीर के विकारों को हटा देते हैं। उसके बाद आसन में स्थिरता प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात् प्राण को सन्तुलित एवं नियन्त्रित करते हैं, तो चौथे में मन स्वाभाविक रूप से अन्तर्मुखी हो जाता है।

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प्रत्याहार के बाद पाँचवें आयाम में उन्होंने प्राणायाम के अभ्यास को जोड़ा है। प्राणायाम के जितने अभ्यास घेरण्ड संहिता में बतलाए गये हैं, उनका सम्बन्ध मन्त्रों के साथ है कि यदि व्यक्ति प्राणायाम करे तो मन्त्रों के साथ करे। प्राणायाम के अभ्यास में हम श्वास-प्रश्वास को अन्दर-बाहर जाते हए देखते हैं और उनकी लम्बाई को समान बनाते हैं। महर्षि घेरण्ड ने भी यही पद्धति अपनायी है, लेकिन गिनती के स्थान पर मन्त्रों का प्रयोग किया है।

उनका कहना है कि प्रत्याहार का अवस्था में, जब मन अंतर्मुखी और केन्द्रित हो रहा हो, उस समय सूक्ष्म अवस्था में प्राणों को जाग्रत करना सरल है। उस अवस्था में प्राणों की जाग्रति और मन को अंतर्मुखी बनाने के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता। प्रत्याहार के बाद स्वाभाविक रूप से सूक्ष्म स्तर के अनुभव, सूक्ष्म जगत् की अनुभूतियाँ होंगी और आप प्राण को जाग्रत कर पायेंगे। मन्त्र के प्रयोग को जोड़कर उन्होंने प्राणायाम के अभ्यास को और शक्तिशाली बना दिया है, क्योंकि जब हम श्वास के साथ मन्त्र जपते हैं तो उसके स्पन्दन का प्रभाव पड़ता है, जिससे एकाग्रता का विस्तार होता है और प्राण के क्षेत्र में शक्ति उत्पन्न होती है, जाग्रत होती है। जिस पर हमारा नियन्त्रण रहता है। वह शक्ति अनियन्त्रित नहीं रहती।

इसके बाद छठे आयाम के अन्तर्गत आता है ध्यान। प्राण जाग्रत हो जाएँ, मन अन्तर्मुखी हो जाए, उसके बाद ध्यान अपने आप ही लगता है। उन्होंने ध्यान के तीन प्रकार बतलाए हैं- बहिरंग ध्यान, अन्तरंग ध्यान और एकचित्त ध्यान। बहिरंग ध्यान में जगत और इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न अनुभवों के प्रति सजगता, अन्तरंग ध्यान में सूक्ष्म मानसिक स्तरों में उत्पन्न अनुभवों की सजगता और एकचित्त ध्यान में आन्तरिक अनुभूति की स्थिति होती है।

सातवें आयाम में समाधि का वर्णन किया गया है। इस प्रक्रिया या समूह को उन्होंने एक दूसरा नाम दिया है- 'घटस्थ योग'। घटस्थ योग का मतलब हुआ, शरीर पर आधारित योग। घट का अर्थ होता है शरीर। यह शरीर घट है। घट का दूसरा अर्थ होता है घड़ा। शरीर को उन्होंने एक घडे के रूप में देखा है, जो पदार्थों से मिलकर बनी हुई एक आकृति है, और परमेश्वर ने उसमें जो कुछ भरा है उसे चाहे इन्द्रिय कहिए, बुद्धि कहिए, अहंकार कहिए, मन कहिए, इन सब को मिलाकर हमारा यह घड़ा बना है। अत: आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए योग की शुरुआत शरीर से होती है और शरीर के माध्यम से हम अपने मानसिक और भावनात्मक स्तरों को नियन्त्रित करके आध्यात्मिक अनुभूति को जाग्रत कर सकते हैं। यह इनकी मान्यता है।

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