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हठयोग के अनुसार आहार | मिताहार क्या है | Mitahar Kya Hai | हठयोग के अनुसार पथ्य और अपथ्य आहार

हठयोग के अनुसार आहार

योग साधना में आहार का विशेष महत्व है। उचित आहार के बिना साधना कर पाना मुमकिन नहीं हैं। क्योंकि आहार ही हमारे शरीर का पोषण करता है। साधक शरीर को ही आधार बनाकर योग साधना करते है। शरीर का ध्यान रखने के लिये उन्हें अपने आहार का भी ध्यान रखना आवश्यक है। योग साधना उनके लिये हैं जो संयमित भोजन करते हैं। जो आपने आहार पर ध्यान नहीं देते वे योग साधना में सफल नहीं हो सकते हैं। हठयोग के ग्रन्थों में पथ्य और अपथ्य आहार का वर्णन प्राप्त होता है, उससे पूर्व यह जानना आवश्यक है की मिताहार किसे कहते हैं, मिताहार क्या है, मिताहार की यह परिभाषा हठप्रदीपिका ग्रन्थ के अनुसार इस प्रकार है–

सुस्निग्धमधुराहारश्चतुर्थांशविवर्जितः।
भुज्यते शिवसंप्रीत्यै मिताहारः स उच्यते।।

अर्थात् सुस्निग्ध (चिकनाई युक्त) मधुर भोजन भगवान को अर्पित कर अपने पूर्ण आहार का चतुर्थांश कम खाया जाये, उसे मिताहार कहते हैं। अब हठयोग के मुख्य ग्रंथों के अनुसार पथ्य और अपथ्य भोजन के बारे में जानते हैं, जो इस प्रकार है -

हठ प्रदीपिका के अनुसार पथ्य आहार

गोधूमशालियवषष्टिकशोभनान्नम्
क्षीराज्यखण्ड नवनीतसितामधूनि।
शुण्ठीपटोलकफलादिकपंचशाकं
मुद्गादिदिव्यमुदकं च यमीन्द्रपथ्यम्।।
पुष्टं सुमधुरं स्न्धिं गव्यं धातुप्रपोषणम्।

मनोभिलषितं योग्यं योगी भोजनमाचरेत्।।

अर्थात् योगाभ्यासी को पुष्टिकारक सुमध पुर, स्निग्ध, गाय के दूध से बनी वस्तु, धातु को पुष्ट करने वाला, मनोनुकूल तथा विहित भोजन करना चाहिये। उत्तम योग साधकों के लिये पथ्य भोजन यह है- चावल, जौ, दूध, घी, मक्खन, मिश्री, मधु, सुन्ठ, परवल जैसे फल आदि 5 प्रकार के साग- (जीवंती, बथुआ, चौलाई, मेघनाथ, पुनर्नवा) मूंग, हरा चना, आदि तथा वर्षा का जल (वर्तमान में उपयुक्त नहीं है)।

मिताहार-का-अर्थ

साधक एवं बाधक तत्व क्या है विडियो देखें

उपरोक्त इस प्रकार हठ प्रदीपिका के अनुसार पथ्य भोजन का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार से हठ प्रदीपिका ग्रन्थ में अपथ्य आहार का भी वर्णन प्राप्त होता है, जो इस प्रकार है -

हठ प्रदीपिका के अनुसार अपथ्य आहार अर्थात् निषिद्ध आहार

कट्वम्लतीक्ष्णलवणोष्णहरीतशाक
सौवीरतैलतिलसर्षपमद्यमत्स्यान्।
आजादिमांसदधितक्रकुलत्थकोल

पिण्याक हिंगुलशुनाद्यमपथ्यमाहुः।।

अर्थात् करेला आदि कट और इमली आदि अम्ल (खट्टा) और मिर्च आदि तीक्त (तीक्ष्ण) लवण और गुड़ आदि उड़द और हरित साग, तिल का तेल, मदिरा, माँस, दही, मट्ठा, हींग तथा लहसुन आदि वस्तु, योग साधकों के लिये अपथ्य कहे गये हैं। ये सभी आहार हठप्रदीपिका ग्रन्थ के अनुसार अपथ्य कहे गये हैं जो की योग साधक को साधना मार्ग में हानि पहुंचाते हैं अतः साधक को ये आहार ग्रहण नहीं करने चाहिए

हठप्रदीपिका के अनुसार ही घेरंड संहिता में भी महर्षि घेरंड राजा चंडकपाली को पथ्य एवं अपथ्य आहार का वर्णन करते हुए पथ्य और अपथ्य आहार की व्याख्या करते हैं जी इस प्रकार है -

घेरंड संहिता के अनुसार पथ्य आहार

मिताहारं विना यस्तु योगारम्भं तु कारयेत।
नानारोगो भवेत्तस्यकिञ्चिद्योगो न सिध्यति॥
शाल्यनं यवपिष्टं वा तथा गोधूमपिष्टकम्।
मद्रं माषचणकादि शुभ्रं च तुषवर्जितम्॥
पटोलं सुरणं मानं कक्कोलं च शुकाशकम्।
द्राढिका कर्कटीं रम्भां डुम्बरी कण्टकण्टकम्॥
आमरम्भां बालरम्भां रम्भादण्डं च मूलकम्।
वार्ताकी मूलकं ऋद्धिं योगी भक्षणमाचरेत्॥
बालशाकं कालशाकं तथा पटोलपत्रकम्।
पञ्चशाकं प्रशंसीयाद्वास्तूकं हिमलोचिकाम्॥
शुद्ध सुमधुरं स्निग्धमुदरार्धविवर्जितम्।
भुज्यते सुरसंप्रीत्या मिताहारमिमं विदुः॥
अन्नेन पूरयेदर्ध तोयेन तु तृतीयकम्।

उदरस्य तृतीयांशं संरक्षेद्वायुचारणे॥

अर्थात् जो साधक योगारम्भ करने के काल में मिताहार नहीं करता, उसके शरीर में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं और उसको योग की सिद्धि नहीं होती। साधक को चावल, जौ का सत्तू, गेहूँ का आटा, मूंग, उड़द, चना आदि का भूसी रहित, स्वच्छ करके भोजन करना चाहिए। परवल, कटहल, ओल, मानकन्द, कंकोल, करेला, कुन्दरू, अरवी, ककड़ी, केला, गुलर और चौलाई आदि का शाक भक्षण करें।

कच्चे या पक्के केले के गुच्छे का दण्ड और उसका मूल, बैंगन, ऋद्धि कच्चा शाक, ऋतु का शाक, परवल के पत्ते, बथुआ और हरहर का शाक खा सकता है। उसे स्वच्छ, सुमधुर, स्निग्ध और सुरस द्रव्य से सन्तोषपूर्वक आधा पेट भरना और आधा खाली रखना चाहिए।

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पेट के आधे भाग को अन्न से, तीसरे भाग को जल से भरना और चौथे भाग को वायु-संचालनार्थ खाली रखना चाहिए इसे ही मिताहार कहा गया है।

घेरंड संहिता के अनुसार निषिद्ध आहार अर्थात् अपथ्य आहार

कट्वम्लं लवणं तिक्तं भृष्टं च दधितक्रकम्।
शाकोत्कटं तथा मद्यं तालं च पनसं तथा॥
कुलत्थं मसुरं पाण्डु कूष्मान्डं शाकदण्डकम्।
तुम्बीकोलकपित्थं च कण्टबिल्वं पलाशकम्॥
कदम्बं जम्बीरं बिम्बं लकुचं लशुनं विषम्।
कामरङगं पियालं च हिङगुशाल्मलिकेमुकम्॥
योगारम्भे वर्जयेच्च पथिस्त्रीवह्निसेवनम्॥
नवनीतं घृतं क्षीरं शर्करायैक्षवं गुडम्।
पक्वरम्भां नारिकेलं दाडिम्बमशिवासवम्।
द्राक्षां तु लवली धात्री रसमम्लविवर्जितम्॥
एलाजातिलवतं च पौरुषं जम्बुजाम्बलम्।

हरीतकी च खरं योगी भक्षणमाचरेत्॥

लघुपार्क प्रियं स्निग्धं तथा धातुप्रपोषणम्।
मनोऽभिलषितं योग्यं योगी भोजनमाचरेत्।
कठिनं दुरितं पूतिमुष्णं पर्युषितं तथा।
अतिशीतं चातिचोष्णं भक्ष्यं योगी विवर्जयेत्॥
प्रातःस्नानोपवासादि कायक्लेशविधि तथा।
एकाहारं निराहारं यामान्ते च न कारयेत्॥
एवं विधि विधानेन प्राणायाम समाचरेत्।
आरम्भे प्रथमे कुर्यात्क्षीराज्यं नित्यभोजनम्।

मध्याह्ने चैव सायाह्ने भोजनद्वयमाचरेत्॥

अर्थात् कड़वा, अम्ल, लवण और तिक्त-ये चार रस वाली वस्तुएँ, भुने हुए पदार्थ, दही तक्र, शाक, उत्कट, मद्य, ताल और कटहल का त्याग करें। कुलथी, मसूर, प्याज, कुम्हड़ा, शाक-दण्ड, गोया, कैथ, ककोड़ा, ढाक, कदम्ब, जम्बीरी, नीबू, कुन्दरू बड़हड़, लहसुन, कमरख, पियार, हींग, सेम और बंडा आदि का भक्षण योगारम्भ मानषिद्ध है। मार्ग-मगन, स्त्री-गमन तथा अग्नि-सेवन (तपना) भी योगी के लिए उचित नहीं। मक्खन, धृत, दूध, गुड़, शक्कर, दाल, आँवला, अम्ल रस आदि से बचें। पाँच प्रकार के कैले, नारियल, अनार, सौंफ आदि वस्तुओं का सेवन भी न करें।

इलायची, लौंग, जायफल, उत्तेजनात्मक पदार्थ, जामुन, जाम्बूल, हरड़ और खजूर का सेवन न करें। शीघ्र पचने वाले, प्रिय, स्निग्ध, धातुओं को पुष्टिदायक मनोनुकूल पदार्थ ही खाने चाहिए। कड़ी वस्तुएँ, दूषित वस्तुएँ, उत्तेजना एवं वासना उत्पन्न करने वाली उष्ण, बासी, अधिक ठण्ढी और अति उग्र वस्तुओं को न खायें।

प्रात:कालीन स्नान एवं उपवासादि शरीर को कष्ट पहुँचाने वाली क्रियाएँ छोड़ देनी चाहिए। एक बार भोजन करना, निराहार रहना अथवा प्रत्येक पहर बाद भोजन करना भी योगारम्भ में त्याज्य है। हठयोग अभ्यास में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिये हमें कई बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है। जैसे-उचित स्थान, समय, वातावरण, आहार आदि। क्योंकि इन सबका हमारे योगाभ्यास की सफलता में काफी योगदान है। विघ्नरहित स्थान जैसे- कोलाहल से दूर खुली हवा में योगाभ्यास करना काफी अच्छा हो सकता है।

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