हठप्रदीपिका ग्रन्थ का परिचय
प्रस्तुत ग्रन्थ हठप्रदीपिका में पाँच उपदेश हैं, जिनमें क्रमश: आसन, प्राणायाम, मुद्रा, नादानुसन्धान तथा यौगिक चिकित्सा विधि जैसे विषय का निरूपण मुख्य रूप से किया गया है। इस प्रकार स्वामी स्वात्माराम ने हठयोग के मात्र चार अंगों का निर्देश किया है, जो स्वात्माराम की विशेषता है, जबकि विभिन्न हठाचार्यों ने इसके कुछ और भी अंगों का निर्देश किया है। अंगों की संख्या में कितनी भी भिन्नता रही हो, इस बात पर प्राय: मतैक्य है कि हठयोग का अभ्यास राजयोग की प्राप्ति के लिये ही किया जाता है। अब, पाठकों की सुविधा के लिये प्रत्येक उपदेश का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है।
प्रथम उपदेश: -
हठप्रदीपिका ग्रन्थ के आरम्भ में श्री आदिनाथ और उसके बाद श्रीनाथ गुरु गोरक्षनाथ को नमन करने के बाद सिद्ध हठयोगियों की लम्बी-परम्परा का निर्देश किया गया है। इसके बाद हठाभ्यास के लिये उपयुक्त स्थान एवं 'मठिका' का निरूपण करते हुए अभ्यास में बाधक और साधक छ: अनिवार्य तत्त्वों का उल्लेख किया गया है। इसके बाद हठ के प्रथम अंग के रूप में आसनों का वर्णन है, हठप्रदीपिका ग्रन्थ में आसनों की संख्या पंद्रह है। इन 15 आसनों में भी स्वात्माराम ने सिद्धासन तथा पद्मासन को विशेष महत्त्व देते हुए विस्तार से इनका वर्णन किया है। अन्त में हठाभ्यासियों के लिये अपथ्यकारक और पथ्यकारक आहार का विस्तार से विवेचन किया है।
द्वितीय उपदेश: -
अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से ग्रंथ के इस द्वितीय उपदेश को मुख्यतः तीन भागों में बाँटा जा सकता है। पहले भाग (1-20) में आसन और आहार की उपयोगिता पर जोर देते हुए गुरु के निर्देशन में ही प्राणायाम के अभ्यास की चर्चा की गई है। साथ ही प्राणायाम के अभ्यास के पूर्व 'नाड़ीशोधन' की आवश्यकता पर बल देते हुए प्राणायाम का सविधि वर्णन किया गया है।
इस सन्दर्भ में उपयुक्त समय, अभ्यास की बारम्बारता, फलस्वरूप शरीर पर उनका प्रभाव तथा अभ्यासकाल में उपयुक्त आहार आदि का निर्देश है। इसके अभ्यास में शीघ्रता या गलती करने से विभिन्न रोगों की सम्भावना हो सकती है और युक्तियुक्त रूप से अभ्यास करने से विभिन्न प्रकार के रोग दूर भी हो सकते हैं। इस दूसरे भाग (21-38) में स्थूलकायों और अधिक कफ वालों के लिये 'षट्कर्म' की आवश्यकता इनके लाभों के साथ बताई गई है। इनके द्वारा कफ, मोटापा और मल आदि दूर हो जाने पर प्राणायाम में सफलता निस्सन्दिग्ध रहती है।
इन्हें भी पढ़ें -
हठप्रदीपिका ग्रन्थ में स्वामी स्वात्माराम जी ने प्राणायाम को आठ भेदों में वर्गीकरण किया है। साथ ही इन सभी प्राणायामों को उनके लाभों के साथ सविधि वर्णन किया है। इसके बाद हठयोग तथा राजयोग को अन्योन्याश्रित बतलाते हुए अन्त में हठसिद्धि के लक्षण बताये गये हैं।
तृतीय उपदेशः -
हठप्रदीपिका ग्रन्थ के तृतीय उपदेश में कुण्डली को योगतन्त्र का आधार बताते हुए इसके जागरण की आवश्यकता के प्रसंग में मुद्राओं का वर्णन प्राप्त होता है। हठयोग प्रदीपिका ग्रंथ में दश मुद्राओं का वर्णन किया है। इस उपदेश में दस मुद्राओं का वर्णन विधिपूर्वक तथा उनके लाभों के साथ विस्तार से किया गया है।
चतुर्थ उपदेश: -
चतुर्थ उपदेश के आरम्भ में समाधि की परिभाषा, कुण्डली जागरण तथा उसके परिणाम, लय की परिभाषा और उसके बाद शाम्भवी तथा खेचरी का वर्णन विधिवत व विस्तार
से मिलता है। तथा ये सभी समाधि के मार्ग के रूप में निरूपित किये गये हैं। इसके
बाद नादानुसन्धान का वर्णन है, जिसे चार स्तरों- आरम्भावस्था,
घटावस्था, परिचयावस्था और निष्पत्त्यवस्था में
विभक्त किया गया है। अन्त में विभिन्न प्रकार के नादों का वर्णन तथा नादश्रवण के
परिणाम स्वरूप समाधि की अवस्था का उल्लेख मिलता है।
पञ्चम उपदेशः -
अभी तक प्रकाशित हठप्रदीपिका के संस्करणों में सर्वप्रथम कैवल्यधाम द्वारा प्रकाशित इस पञ्चम उपदेश में हठाभ्यास करते समय भूल से गलत प्रक्रिया अपना लेने पर सम्भावित व्याधियों के निवारणार्थ यौगिक चिकित्सा का वर्णन किया गया है। इसी प्रसंग में शरीरस्थ वात, पित्त और कफ स्थान का निरूपण तथा वायु के गलत मार्ग पर चले जाने से गांठ बन जाने अथवा कफ की अधिकता के कारण हृदयशूल, पार्श्वशूल, पृष्ठशूल, हिक्का, श्वास, शिरः शूल, कुष्ठ, तिमिर तथा कम्पन आदि रोगों की सम्भावनायें एवं उनकी उपचार विधि बताई गई है। साथ ही आयुर्वेदिक चिकित्सा का भी सहारा लेने को कहा गया है।
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