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शिवसंहिता का परिचय | Shiva Samhita In Hindi | शिवसंहिता का सम्पूर्ण परिचय

शिवसंहिता का परिचय

शिवसंहिता जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यह शिव के द्वारा की गयी योगचर्चा का संग्रह। यह चर्चा भगवान शिव और माता पार्वती के बीच का संवाद है। शिवसंहिता ग्रन्थ में पांच अध्याय हैं जिन्हें पंच पटल के नाम से जाना जाता है इनमें कुल 642 श्लोकों का वर्णन प्राप्त होता है। भगवान शिव शिवसंहिता ग्रन्थ के अलावा हठयोग के प्रणेता भी माने जाते हैं। शिवसंहिता ग्रन्थ संवादात्मक है और यही बात इस ग्रन्थ के समाप्ति वाक्य से भी परिलक्षित होती है-

इति श्री शिवसंहितायां योगशास्त्रे ईश्वरपार्वती संवादे

यह कहना कठिन है कि शिव कौन थे। पूरी शिवसंहिता में शिव भगवान शिव के ही द्योतक हैं और इस प्रकार शिवसंहिता भगवान शिव प्रदत्त योगज्ञान कहा जा सकता है। शिवसंहिता का दूसरा अर्थ जो अधिक समीचीन प्रतीत होता है वह है शिवतत्त्व को प्राप्त कराने वाली संहितावस्तुतः शिवसंहिता के योगाभ्यास की चरम अवस्था भी यही है। योगग्रन्थों की यह परम्परा रही है कि वे योगांगो की चर्चा अवश्य करते हैं भले ही उन योगांगो की चर्चा के अतिरिक्त योग सम्बन्धित अन्य विषयों की चर्चा भी की गयी हो।

Shiva Samhita In Hindi By Yoga And Ayurveda Science

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हठयोग के ही ग्रन्थ हठप्रदीपिका के अनुसार हठयोग के चार अंग हैं- आसनकुम्भकमुद्रा और नादानुसन्धान तो वहीं गोरक्षशतक के अनुसार योग के अंग बताये गये हैं- आसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान और समाधि। घेरण्ड संहिता में तो योग के सात अंग स्वीकार किये हैं- षट्कर्मआसनमुद्राप्रत्याहार प्राणायामध्यान एवं समाधि किन्तु शिवसंहिता में इस परम्परा का निर्वाह नहीं मिलता है। पांच पटलों में विभाजित तथा 642 श्लोकों का यह विशाल ग्रन्थ योग से सम्बन्धित बहु आयामी किन्तु महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा तो करता है किन्तु कहीं भी योग को योगांगो की सीमा में नहीं बांधता।

शिवसंहिता नेज्ञान एवं योग का अभ्यासदोनों को समान महत्व दिया है। दिशाहीन अभ्यास निरर्थक है और ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में ज्ञानप्राप्ति के लिये किया गया योगाभ्यास ही फलित होता है। ज्ञान की चर्चा से पूर्व शिवसंहिता ने अज्ञान की विशद चर्चा की है। और इसी सन्दर्भ में स्थापित किया है कि उपलब्ध मत मतान्तर हमें मोक्ष तो नहीं ही प्राप्त करा सकतेएतद्विपरीत वे हमें दिक्भ्रमित ही करते हैं। एक मात्र आत्मज्ञान ही श्रेष्ठ है और आत्मा को जानने के लिये जो आत्मा नहीं है वह जानना भी आवश्यक है।

शिवसंहिता में तांत्रिक संकल्पना तथा मंत्र की उपयोगिता पर भी विशद चर्चा मिलती है। कुण्डलिनी जागरण के लिये वाग्बीजकामबीज तथा शक्तिबीज - इन तीन बीजमंत्रों की चर्चा तथा उसके जप से कुण्डलिनी जागरण की कल्पना हठयोग के ग्रन्थ के लिये नवीन विषय है। मन्त्रों की जपसंख्या का विधान भी इस सन्दर्भ में ध्यातव्य है जो लाख मन्त्रजाप से प्रारम्भ होकर कोटि मंत्र जप को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार करता है। वैसे इसकी व्यावहारिक संभावना एक प्रश्नवाचक चिह्न ही प्रस्तुत करती है।

शिवसंहिता में वर्णित चार प्रकार के योग-

1. मंत्रयोग

2. हठयोग

3. लययोग

4. राजयोग

शिवसंहिता में इन चारों को महायोग के नाम से स्वीकार किया है। शिवसंहिता ने इन चार प्रकार के योगों की चर्चा की है किन्तु इन चारों योगों को साधकों की योग्यता के आधार पर योग्य गुरु के उपदेश द्वारा प्राप्त करने की कल्पना नवीन प्रतीत होती है। साधक के गुणों की चर्चा मृदुमध्य और अधिमात्र के रूप में पातञ्जल योगसूत्र में भी मिलती है किन्तु शिवसंहिता ने चार योग और चार प्रकार के साधक का अनूठा सम्बन्ध बिठाया है।

शिवसंहिता के अनुसार चार प्रकार के साधक-

1. मृदु

2. मध्य

3. अधिमात्र

4. अधिमात्रतम

इन चार प्रकार के साधकों के लक्षण भी विस्तार से वर्णित किये गये हैंजिनके आधार पर साधक स्वयं भी अपना आंकलन कर सकता है कि वह किस प्रकार के साधकों की श्रेणी में रखे जाने योग्य है और तदनुसार वह योग्य गुरु द्वारा अपने लिये उचित योग की दीक्षा प्राप्त कर सकता है। किन्तु शिवसंहिता नेकौन सा साधक किस कोटि का है और वह किस प्रकार के योग के योग्य है इसके निर्णय का दायित्व योग्य गुरु पर छोड़ा है। मृदुमध्य और अधिमात्र प्रकार के साधक तो क्रमशः मंत्रयोगलययोग और हठयोग के अधिकारी हो सकते हैंजबकि अधिमात्रतम कोटि के साधक सभी प्रकार के योग के अधिकारी हैं। इस प्रकार साधक वर्गीकरण के आधार पर विभिन्न योगों का उपदेश अथवा साधना शिवसंहिता की विशेषता प्रतीत होती है।

योगाभ्यास के मार्ग में साधक-बाधक तत्त्वों की चर्चा भी योगग्रन्थों की विशेषता रही है। और पदे पदे सिद्धि के मार्ग में आने वाली बाधाओं के प्रति भी सचेत किये जाने की भी परम्परा रही है जो विभिन्न योगग्रन्थों में यत्र तत्र प्रचुर मात्रा में प्राप्त हो सकती हैं। शिवसंहिता में इन बाधक-साधक तत्वों को महत्व दिया है तथा बाधक तत्त्वों को योग विघ्न स्वीकार करते हुए इनकी चर्चा तृतीय पटल तथा पंचम पटल में की है। तृतीय पटल में उपलब्ध योगविघ्न की चर्चा पवनाभ्यास वर्णन के क्रम में दी गयी है। ऐसा लगता है कि पवनाभ्यासी को विशेषरूप से इन योगविघ्नों को ध्यान में रख कर तथा उनसे दूर रहते हुए पवनाभ्यास में तत्पर रहना चाहिए। यह उपवास तथा अतीव भोजन नामक योग विघ्न के साथ विशेषरूप से घटित होता है। पवनाभ्यासी को इन दोनों ही स्थितियों को टालना चाहिये क्योंकि पवनाभ्यासियों के लिये स्तोक स्तोकमनेकधा प्रक्रिया से भोजन का विधान किया गया है।

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जहां तक पञ्चमपटल में योगविघ्नों के चर्चा का प्रश्न है तो यह कहा जा सकता है कि योग में सिद्धि प्राप्त करने के दृष्टिकोण से जो कुछ भी विघ्नों के रूप में कहा जा सकता है उन सभी का परिगणन इस पटल में कर दिया गया है और उन विघ्नों के तीन वर्ग बना दिये हैं

1. भोगरूप विघ्न

2. धर्मरूप विघ्न

3. ज्ञानरूप विघ्न

एतद् द्वारा शिवसंहिता ने जो कुछ भी आरम्भ से लेकर अन्त तक विघ्न या हेय या योग के लिये अहितकारी माना है उन सभी को इन विघ्नों में समेट लिया है। भोगरूप विघ्नों में परिगणित तत्त्वों को तो सरलता से विघ्न के रूप में स्वीकार किया जा सकता है किन्तु धर्मरूप विघ्न और ज्ञानरूप विघ्न प्रथम दृष्ट्या अस्वीकार्य ही लगते हैं। यहां यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि शिवसंहिता की अपनी कछ मान्यताएं हैं और उन मान्यताओं के अनुकूल ही धर्मरूप या ज्ञानरूप विघ्नों की चर्चा की गयी है।

योगविघ्नों से दूर रहने पर योगानुकूल स्थिति बनती हैयह सुतरा सिद्ध होने के कारण पञ्चम पटल में योगविघ्नों की चर्चा के अनन्तर योग साधक तत्वों की चर्चा नहीं की गयी है। तथापि तृतीय पटल में पवनाभ्यास में सफलता के लिये विघ्नों की चर्चा के उपरान्त ऐसे नियमों की भी चर्चा की गयी है जिनका अनुपालन योग में सफलता के लिये आवश्यक है। इन नियमों में से दो नियम की चर्चा यहां अपेक्षित है। शिवसंहिता 1/42 के अनुसार योग में सफलता के लिये वायु के सूर्य में प्रविष्ट रहने पर अर्थात् पिंगला नाड़ी सक्रिय रहने पर भोजन करना चाहिये तथा चन्द्र में प्रविष्ट होने पर अर्थात् इड़ा नाडी सक्रिय रहने पर शयन करना चाहिये।

इस प्रकार के निर्देश यह सूचित करते हैं कि साधकों को स्वर का ज्ञान भी आवश्यक है तथा कार्यानुकूल स्वर में ही कार्य की ओर प्रवृत्त होना चाहिये। साधना के समय भोजन का विशेष ध्यान भी जरूरी है। भोजन के चयन में उनके गुणों का महत्त्व तो दिया गया है साथ ही पञ्चम पटल में उपलब्ध निर्देश से यह ज्ञात होता है कि भोजन के परिणाम पर भी साधना प्रारम्भ करने से लेकर अभ्यास के परिपक्व होने तक विशेष ध्यान रखना है अन्यथा साधक साधना में सफल हो ही नहीं सकता।

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