घेरंड संहिता का परिचय
महर्षि घेरण्ड अपने हठयोग के ग्रन्थ घेरंड संहिता में कहते हैं कि घटस्थ योग के अभ्यास के लिए सात गुणों का होना आवश्यक है और इन सात गुणों के समावेश के लिए सात प्रकार के योगाभ्यास आवश्यक हैं। जिन सात साधनों का वर्णन यहाँ पर किया गया है, वे योग के ही अभ्यास हैं, किन्तु उनकी तुलना अष्टांग योग नहीं करना चाहिए। योग से सम्बन्धित जितने प्राचीन ग्रन्थ और शास्त्र हैं, उनमें अष्टांग योग की चर्चा की गयी है। लेकिन महर्षि घेरण्ड इन सात साधनों को बतला कर अपने घटस्थ योग को दूसरा रूप नहीं दे रहे हैं, वरन् यह कहा जा सकता है कि उन्होंने अष्टांग योग के ही मूल तत्त्वों को लेकर, उन्हें सात आवश्यकताओं का रूप देकर वर्णित किया है।
घेरंड संहिता के अनुसार सप्तसाधन
महर्षि घेरण्ड द्वारा शरीर की शुद्धि के लिए ये सात साधन बताये गये हैं- शोधन, दृढ़ता, स्थैर्य, धैर्य, लाघव, प्रत्यक्ष और निर्लिप्तता।
1. शोधनम् - पहला है शोधन, जिसका अर्थ है शुद्धिकरण। शरीर और मन को विकार रहित बनाने के लिए शुद्धिकरण अत्यन्त आवश्यक है।
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2. दृढ़ता - दूसरा है दृढ़ता। कुछ लोग दृढ़ता का अर्थ लगाते हैं 'शक्ति' और कुछ लोग अर्थ लगाते हैं 'मानसिक बल', लेकिन यहाँ पर जिस उद्देश्य से दृढ़ता का प्रयोग किया गया है, वह केवल शारीरिक नहीं, वरन् मानसिक, विचारात्मक और भावनात्मक भी है। महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि आत्मशुद्धि के लिए व्यक्ति को दढता का गुण प्राप्त करना आवश्यक है। परिणाम प्राप्ति तक धैर्यपूर्वक अभ्यास करते रहना दृढ़ता का लक्षण होता है। यहाँ पर दृढ़ता का अर्थ लगा सकते हैं, एक संकल्प को धारण कर चलना, और उस पर अडिग रहना।
3. स्थैर्यम् - तीसरा साधन है स्थिरता। महर्षि पतंजलि ने भी योग सूत्रों में स्थिरता का वर्णन किया है। उन्होंने शरीर से सम्बन्धित स्थिरता का वर्णन किया है- 'स्थिर सुखं आसनम्।' आसन के अभ्यास में व्यक्ति को स्थिर रहना चाहिए। आसन में किसी प्रकार की कठिनाई, तनाव या दर्द उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए। सहज भाव से आसन होने चाहिए। वही उद्देश्य यहाँ पर भी अपनाया गया है। शारीरिक स्थिरता प्राप्त करना आवश्यक है, क्योंकि यदि किसी अवस्था में हमारा शरीर चञ्चल है, तो वह मन को केन्द्रित नहीं होने देगा। स्थिरता को एक गुण या आवश्यकता के रूप में देखा गया है। बाद में बतलाया जाएगा कि हम किस प्रकार इस स्थिरता की अवस्था को प्राप्त करें।
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4. धैर्यम् - चौथा साधन है धैर्य। यह भी एक गुण है कि व्यक्ति परिस्थितियों से अप्रभावित रहे, अपना धैर्य न खोये, उद्विग्न न हो, अपनी सहनशीलता न खोये। यह मानसिक गुण है, क्योंकि शरीर तो धैर्य खोता नहीं, मन ही धैर्य खोता है।
5. लाघवम् – पाँचवाँ साधन या आवश्यकता है लाघव अर्थात् हलकापन। योगी का शरीर हलका रहना चाहिए, भारी भरकम नहीं होना चाहिए, चर्बीयुक्त नहीं होना चाहिए। चर्बीयुक्त शरीर को योग के लिए उपयुक्त नहीं माना गया है, क्योंकि यह मान्यता है कि चर्बीयुक्त शरीर में विकार उत्पन्न होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि जो लोग मोटे हैं, वे योगी नहीं बन सकते। यहाँ पर सामान्य जीवन की बात हो रही है, गुणों की बात हो रही है।
6. प्रत्यक्षम् – छठा गुण है। प्रत्यक्ष का तात्पर्य यहाँ पर सांख्य दर्शन के प्रत्यक्ष से नहीं है। यहाँ पर प्रत्यक्ष का अर्थ होता है- ग्रहणशीलता, अर्थात् ग्रहण करने का स्वभाव। जितने सूक्ष्म या आन्तरिक अनुभव होते हैं, उन्हें मन की दृष्टि में स्पष्ट रखना ही प्रत्यक्षम्’ का तात्पर्य है। ‘प्रत्यक्षम्’– प्रति + अक्षम्। प्रति उपसर्ग है, जो शब्दों के पहले आकर विपरीति, सामना, साम्मुख्य आदि का द्योतन करता है और अक्षम् का अर्थ होता है चक्षु, नेत्र, देखना।
यह प्रत्यक्ष की अवस्था लय की अवस्था नहीं है, जहाँ पर आपको कुछ दिखलायी न दे। यह इन्द्रिय अनुभूति की अवस्था भी नहीं है, वरन् यह अवस्था है जिसमें आप एक आन्तरिक अनुभव को देखते, अनुभव करते और उसी में अपने आपको स्थित करते हैं।
7. निर्लिप्तम् - सातवाँ गुण है निर्लिप्त। निर्लिप्त का तात्पर्य बहुत-से लोग समाधि से लगाते हैं, लेकिन वास्तव में इसका अर्थ है मन की अनासक्त अवस्था। लिप्त होना, अर्थात्— 'माखी गुड़ में गड़ी रहे, पंख रहे लपटाय, हाथ मले औ सिर धुने, लालच बुरी बलाय।' निर्लिप्त-जहाँ मन लिप्त न रहे। लिप्त का यहाँ अभी सम्बन्ध जोड़ा जा रहा है जीवन, शरीर, विचार, भावना, वासना और विकार से। इससे परे आत्मज्ञान में अपने आपको स्थित कर लेना निर्लिप्त अवस्था है। गुरुत्वाकर्षण की शक्ति से, जो हमें जगत् की ओर आकृष्ट करती है, मुक्त हो जाना निर्लिप्त अवस्था है।
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