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योग दर्शन में योग का स्वरुप | Yog Darshan Mein Yog Ka Swaroop | योगदर्शन में योग

योगदर्शन का परिचय

प्राचीन काल से ही योग की अनेक शाखाएँ प्रचलित हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भी राजयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, सांख्ययोग, ज्ञानकर्म संन्यास योग आदि विभिन्न योगों का उल्लेख है। योगदर्शन साधकों के लिए परम उपयोगी ग्रन्थ है इसमें अन्य दर्शनों की भांति खण्डन-मण्डन के बिना सरलापूर्वक बहुत ही कम शब्दों में अपने सिद्धान्त का निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थ पर अब तक संस्कृत, हिन्दी और अन्याय भाषाओं में बहुत भाष्य और टीकाए लिखी जा चुकी चुकी है। महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योगदर्शन अर्थात् पातंजल योगसूत्र में चार अध्याय हैं, जिन्हें पाद के नाम से जाना जाता है जो निम्न वर्णित हैं-

पातंजल योगसूत्र में वर्णित चार पाद

1. समाधिपाद

2. साधनपाद

3. विभूतिपाद

4. कैवल्यपाद। इनका चारों पादों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित इस प्रकार है-

1. समाधिपादमहर्षि पतंजलि ने पहले पाद में योग के लक्षण, स्वरूप और उसकी प्राप्ति के उपायों का वर्णन करते हुए चित्त की वृत्तियों के पांच भेद और उनके लक्षण बतलायें गये हैं तथा मुख्य रूप से समाधि के भेदों का वर्णन किया गया है।

2. साधनपाद - इस पाद में अविद्यादि पांच क्लेशों को समस्त दुःखों का कारण बताया गया है, क्योंकि इनके रहते हुए मनुष्य जो कुछ कर्म करता है, वे संस्कार रूप में अन्तःकरण में इकठ्ठे होते रहते हैं, उन संस्कार के समुदाय नाम ही कर्माशय है। क्रियायोग एवं अष्टांग योग का वर्णन किया गया है।

3. विभूतिपाद - विभूतिपाद में धारणा, ध्यान और समाधि इन तीनों का एकत्रित नाम 'संयम' बतलाकर भिन्न-भिन्न ध्येय पदार्थों में संयम का भिन्न-भिन्न फल बतलाया है।

4. कैवल्यपाद - इस चौथे पाद में कैवल्यपाद प्राप्त करने योग्य चित्त के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। गुणों से सर्वथा अलग होकर अपने रूप में प्रतिष्ठित हो जाना पुरुष की कैवल्य स्थिति बताकर ग्रन्थ की समाप्ति की गयी है।

योगदर्शन के अनुसार योग की परिभाषा

महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन अर्थात् योगसूत्र के प्रथम पाद के दूसरे सूत्र में ही योग की परिभाषा और स्वरूप को स्पष्ट कर दिया है-

योगश्चित्तवृत्ति निरोधः

अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है, अथवा चित्त की वृत्तियों को नियंत्रण कर लेना ही योग है। यह सूत्र सम्पूर्ण योगसूत्रों का मूल आधार है। यदि चित्त की वृत्तियाँ एकाग्र न होंगी, तो मन संसार में चतुर्दिक भटकता ही रहेगा और ईश्वर का दर्शन, साक्षात्कार और सम्मिलन कुछ न हो सकेगा।

योगदर्शन-में-योग

योगदर्शन के अनुसार चित्तवृत्ति निरोध के उपाय

महर्षि पतंजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध हेतु निम्नलिखित मुख्य उपायों का वर्णन किया है-

1. अभ्यास एवं वैराग्य

2. क्रियायोग

3. अष्टांगयोगइन उपायों को हम निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट कर सकते हैं-

1. अभ्यास वैराग्य - अभ्यास वैराग्य के सन्दर्भ में महर्षि पतंजलि योगदर्शन के प्रथम पाद के 12वें सूत्र में इस प्रकार से करते हैं- "अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः" अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से उनका (चित्त वृत्तियों) का निरोध होता है। अभ्यास से तमोगुण और वैराग्य से रजोगुण की निवृत्ति होती है। वैराग्य से चित्त की अविवेकपूर्ण विषयोन्मुखता समाप्त की जाती है एवं विषय विमुखता उत्पन्न की जाती है। अभ्यास क्या है इसको परिभाषित करते हुए महर्षि योगदर्शन के प्रथम पाद के 13वें सूत्र में कहते हैं- "तत्र स्थितौ यत्नोभ्यासः" अर्थात् उनमें से स्थिति के निमित्त प्रयत्न करना अभ्यास है। इसी क्रम में आगे वर्णन कहते हैं कि- "स तु दीर्घकालनैरंतर्यसत्कारा सेवितोदृढभूमि"। अर्थात् यह अभ्यास दीर्धकाल, निरंतर और आदरपूर्वक सेवित होने पर दृढभूमि होता है। वैराग्य के सन्दर्भ में महर्षि पतंजलि कहते हैं कि- "द्रष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकार संज्ञावैराग्यम्"। अर्थात् देखे हुए सुने हुए विषयों में जो पूर्ण रूपेण तृष्णा रहित है, ऐसे चित्त की वशीकार संज्ञा (अवस्था) को ही वैराग्य कहते हैं।

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2. क्रियायोग - साधनपाद में सर्वप्रथम क्रियायोग का वर्णन किया गया है। महर्षि पतंजलि स्पष्ट कहते हैं- "तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः"। अर्थात् तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान अर्थात (शरणागति) ये तीनों ही क्रियायोग है। इसके पश्चात् पतंजलि क्रियायोग के फल का वर्णन करते हुए स्पष्ट करते हैं- "समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च"। अर्थात् निश्चय ही वह (क्रियायोग) समाधि की सिद्धि करने वाला और अविद्यादि क्लेशों का क्षीण करना वाला है।

3. अष्टांग योग - महर्षि पतंजलि अष्टांगयोग का वर्णन करते हुए योगदर्शन के दूसरे पाद के 29वें सूत्र में इस प्रकार से करते हैं- "यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमा योऽष्टावङ्गानि"। अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि योग के आठ अंग हैं। इस प्रकार महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग की व्याख्या की है

इस प्रकार हम देखते हैं कि महर्षि पतंजलि के योग का प्रमुख उपदेश है कि मनुष्य स्थूल भाव से ऊँचा उठकर सूक्ष्मता की ओर बढ़े। मानव की चित्त वृत्तियाँ ही भौतिक जगत् के पदार्थों को ग्रहण करने वाली अर्थात् उनमें होने वाली होती हैं। यौगिक क्रियाओं द्वारा जैसे-जैसे चित्त वृत्तियों को नियन्त्रित किया जायेगा वैसे-वैसे मनुष्य बाहर से अन्दर की ओर प्रवेश करता जायेगा अर्थात् अन्तर्मुखी होकर आत्मतत्त्व को जानता जायेगा और अन्ततः नियमित और अनुशासित अभ्यास के माध्यम से समाधि एवं कैवल्य अवस्था तक पहुँच जायेगा।

योगसूत्रों के अध्ययन से अनुभव होता है कि योगसूत्र आध्यात्मिक लक्ष्य या जीवन के आत्यन्तिक लक्ष्य की प्राप्ति का अचूक साधन है। साथ ही योग, मानव जीवन को सार्थक और सफल बनाने का सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। यह तथ्य सर्वमान्य है कि इच्छा और धारणा शक्ति जगत की सबसे महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ हैं, इन्हीं के सहारे आज तक सभी महापुरुषों, सिद्धों, तपस्वियों ने बड़े-बड़े कार्य किये हैं।

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