ज्ञान योग क्या है
आध्यात्मिक क्षेत्र में साधक का जो मार्ग होता है अर्थात् जिस प्रकार के साधनों का वह प्रयोग करता है उन्हीं के अनुरूप उसकी साधना का नाम होता है। ज्ञान के द्वारा सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति के मार्ग को ज्ञानयोग कहा जाता है। वैसे तो उन सभी साधनाओं को जिनमें ज्ञान को माध्यम बनाकर लक्ष्य की प्राप्ति की जाती है उन्हें ज्ञानयोग कह सकते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में सांख्ययोग को भी ज्ञानयोग कहा गया है। परन्तु मुख्यतया वेदान्त की साधना को ही ज्ञानयोग के नाम से जाना जाता है, क्योंकि इस साधना में ज्ञान ही मुख्य साधना है। यह ज्ञान की उच्चतम और अंतिम अवस्था है। जिसके कारण साधक ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है अर्थात् वह ब्रह्म ही हो जाता है।
ज्ञानयोग के सिद्धान्तों के अनुसार आत्मा आनन्दस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, सत्, कुटस्थ, नित्य, शुद्ध, बुद्ध है। अपने वास्तविक स्वरूप में आत्मा ब्रह्म ही है। एक मात्र ब्रह्म ही सत्य है ब्रह्म के अतिरिक्त इस संसार में किसी की सत्ता नहीं है। यह समस्त विप्तप्रपंच उसी अद्वितीय तत्व में अन्तरभूत स्थित और प्रकाशित है। ब्रह्म स्वयं प्रकाशमान अनन्त, अखण्ड, अनादि, अविनाशी, चेतन स्वरूप तथा आनन्दमय है जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत में प्रविष्ट होकर नाना रूपों में प्रकट होती है। उसी प्रकार सभी जीवों के अन्तरात्मा में वह एक ही ब्रह्म नाना रूपों में प्रकट हो रहा है और वह इस जगत के बाहर भी है।
ज्ञानयोग के अनुसार जीव ब्रह्म की एकता का ज्ञान हो जाना ही मोक्ष है। ज्ञानयोग के अनुसार यह तभी संभव है जबकि जीव और ब्रह्म की एकता सिद्ध हो जाती है। ज्ञानयोग के उत्तम कोटि के साधकों की तो श्रुतिवाक्य के सुनने मात्र से हृदय ग्रंथि खुल जाती है तथा जीव और ब्रह्म का भेद समाप्त हो जाता है। जीव जो अज्ञानवश अपने को जीव मानता है वास्तव में वह ब्रह्म ही है और ब्रह्म को जानने पर ब्रह्म ही हो जाता है। अतः ब्रह्मभाव की स्थिति ही मोक्ष अर्थात् कैवल्य है। वेदान्त के अनुसार यह मोक्ष ज्ञान से ही संभव है। ब्रह्मभाव की स्थिति को प्राप्त करना ही ज्ञानयोग की साधना का लक्ष्य है और शास्त्रों में इस साधना का वर्णन अग्रलिखित रूप से किया गया है। ज्ञानयोग की साधना को बहिरंग और अंतरंग दो प्रकार की साधनाओं में विभक्त किया गया है। ये साधनाएँ निम्न प्रकार हैं -
ज्ञानयोग की साधना के दो प्रकार
1. बहिरंग साधन
2. अंतरंग साधन
1. बहिरंग साधन - ज्ञानयोग
की साधना की प्रारंभिक अवस्था में साधकों को जिन बातों का पालन करना आवश्यक है, उन्हीं को बहिरंग साधन के नाम से जाना जाता है। बहिरंग साधन के अंतर्गत
चार साधन आते हैं, जिन्हें साधन चतुष्टय का नाम दिया गया है। इनका पालन करने पर ही
साधक सच्चा जिज्ञासु होता है ये साधन निम्नलिखित हैं-
1. विवेक
2. वैराग्य
3. षट्सम्पत्ति
4. मुमुक्षुत्व
1. विवेक - नित्य वस्तु को नित्य और अनित्य वस्तु को अनित्य समझना ही विवेक है। इसके द्वारा यह जाना जाता है कि ब्रह्म ही नित्य है उसके अतिरिक्त सभी वस्तुएँ अनित्य हैं। वेदान्ती रामानुजाचार्य इसके साथ-साथ खाद्य और अखाद्य के विवेक पर भी बल लेते हैं क्योंकि हम जिस प्रकार का अन्न ग्रहण करते हैं वैसी ही हमारी बत्ति हो जाती है। साधारणतया कहा जाता है 'जैसा खाये अन्न वैसा बने मन' अर्थात् जिस प्रकार का हम भोजन करते है; वैसी ही हमारी चित्त की वृत्तियाँ हो जाती है। साधक को तामसिक पदार्थों का त्यागकर सात्विक पदार्थों को ग्रहण करना चाहिए। रामानुज ने इसकी विस्तृत व्याख्या की है।
2. वैराग्य - समस्त संसार में जो भोग विलास के पदार्थ हैं और परलोक के निमित्त स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए जो यज्ञादि कर्म किये जाते हैं उन कर्म फलों से सर्वथा विमुख हो जाना वैराग्य कहलाता है। अर्थात् समस्त पदार्थों और कर्मफलों में आसक्ति न रखना ही सच्चा वैराग्य है। इस वैराग्य के बिना साधक योग मार्ग में आगे नहीं बढ़ पाता। यह भी ज्ञान की साधना का एक सबल अंग है।
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3. षट्सम्पत्ति - ज्ञानयोग की साधना में साधक को छ: बातों का अर्थात् षट्सम्पत्तियों का पालन करना अनिवार्य बताया गया है। इनको साधक की सम्पत्ति माना जाता है इन्हीं के सहारे साधक साधना मार्ग में प्रवेश कर पाता है।
ये षट्सम्पत्तियां हैं
(1) शम
(2) दम
(3) तितिक्षा
(4) उपरति
(5) श्रद्धा
(6) समाधान।
4. मुमुक्षुत्व - अज्ञान के कारण जीव जो बन्धन अनुभव कर रहा है उस बन्धन से मुक्त होने की इच्छा को भी मुमुक्षुत्व कहते हैं अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की इच्छा। इस प्रकार विवेक से वैराग्य तथा वैराग्य से मोक्ष की इच्छा और ब्रह्म की जिज्ञासा होती है।
2. अंतरंग साधन - ज्ञानयोग की साधना में अंतरंग साधनों की संख्या भी तीन बतायी गयी है। ये हैं-
1. श्रवण
2. मनन
3. निदिध्यासन
1. श्रवण - सम्पूर्ण
वेदान्त वाक्यों का एक ही ब्रह्म में तात्पर्य समझना श्रवण कहलाता है। इसके
अन्तर्गत शिष्य गुरू के पास जाकर 'अहं ब्रह्मास्मि'
'तत्वमसि' 'अयमात्माब्रह्म' आदि श्रुति वाक्यों को सुनता है।
2. मनन - इसके पश्चात् इन वाक्यों का तात्पर्य समझकर वेदान्त के अनुकूल युक्तियों द्वारा अद्वितीय ब्रह्म का चिन्तन करना मनन कहलाता है।
3. निदिध्यासन - इसके पश्चात् शरीर से लेकर बुद्धि पर्यन्त जितने भी विभिन्न जड़ पदार्थ हैं उनमें भिन्नत्व की भावना को हटाकर सबमें एकमात्र ब्रह्म विषयक चित्त की एकाग्रता को निदिध्यासन कहते हैं।
ज्ञानयोग की साधना में जगत के मिथ्यात्व के साथ ब्रह्मात्म ऐक्य का विचार आधार होता है। यह साधना अपने आप में एक कठिन साधना है। क्योंकि साधक को आरंभ से ही समस्त वस्तुओं का मिथ्यारूप में ज्ञान होता है। आत्मा को अनात्मा से सर्वथा पृथक करके उसको ब्रह्म के रूप में जानना होता है केवल एक मात्र ब्रह्म ही सत्य है। इसका अभ्यास करना होता है। योग की साधनाओं में उच्च कोटि की साधना है। इसमें ज्ञान के द्वारा ही ब्रह्म की प्राप्ति की जाती है। यद्यपि चित्त की एकाग्रता आवश्यक है। किन्तु ज्ञान का निवारण प्रधान है। क्योंकि अज्ञान के कारण ही बंधन है। और अज्ञान का निवारण ज्ञान के द्वारा ही संभव है।
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