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भक्ति योग क्या है | भक्ति योग का अर्थ क्या है | Bhakti Yoga In Hindi | भक्ति के प्रकार

भक्ति योग का अर्थ

साधना जगत में भक्तियोग का विशिष्ट स्थान है भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ने के कारण इसे योग कहा गया है भक्तियोग योग की विभिन्न शाखाओं में से एक है इसको उत्कृष्ट एवं सर्वोत्तम माना गया है क्योंकि यह सबसे सरल एवं सुगम है इसका अधिकारी कोई भी बन सकता है इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं है। भक्ति शब्द भज्-सेवायाम् धातु में क्तिन्प्रत्यय लगकर बनता है जिसका अर्थ है- सेवा, पूजा आदि। भक्तियोग की साधना भाव प्रधान साधकों के लिए अधिक उपयुक्त है। भगवत् प्राप्ति का यह सबसे सरल और स्वाभाविक मार्ग है। भक्ति की परिभाषाएँ विभिन्न विद्वानों ने इस प्रकार दी हैं। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार "सच्चे और निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज करना ही भक्ति कहलाती है।"

परम भक्त नारद मुनि भक्ति योग की परिभाषा देते हुए कहते हैं। 'सा तस्मिन परमप्रेम रूपाअर्थात् भगवान के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति है। शाण्डिल्य सूत्र में भक्ति की परिभाषा देते हुए कहा है।सा प्रानुरक्ति ईश्वरे' अर्थात् ईश्वर के प्रति परम अनुरक्ति रखना ही भक्ति है सामान्य रूप से देखा जाय तो प्रेम ही भक्ति का मूल सिद्धान्त है। भक्त प्रहलाद भक्ति योग की परिभाषा में कहते हैं कि हे ईश्वर!

भक्ति योग क्या है

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अज्ञानी जनों की जैसी प्रीति इन्द्रियों के नाशवानक्षणभंगुरभोग्य पदार्थों के प्रति रहती है वैसी ही प्रीति मेरी तुममें हो और हे भगवान! तेरी सतत् कामना करते हुए मेरे हृदय से वह कभी भी दूर न हो। इस परिभाषा में भगवान के प्रति उत्कट प्रेमउन्हें प्राप्त करने की उत्कट इच्छा दिखाई देती है। भक्ति योग की यह सर्वोत्तम परिभाषा है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भक्ति योग में किसी न किसी रूप में भगवान को मानना आवश्यक है और उसके प्रेम में डूबकर उसके साथ एकीभूत हो जाना ही भक्तियोग का लक्ष्य है। भक्ति योग की साधना को भिन्न प्रकार से किया जाता है भक्त प्रह्लाद ने भक्ति साधना नौ प्रकार बताये हैं। जिसे नवधा भक्ति के नाम से जाना जाता है। भक्ति मार्ग में यही साधना सर्वाधिक प्रचलित है। इसका वर्णन निम्नलिखित हैं-

श्रीमद्भागवत के अनुसार भक्ति के प्रकार

1. श्रवण

2. कीर्तन

3. स्मरण

4. पाद सेवन

5. अर्चना

6. वन्दना

7. दास्य

8. साख्य

9. आत्म निवेदन

1. श्रवण- कानों के द्वारा भगवान की महिमा, उसके मंगल चरित्र व उनके नाम का संकीर्तन आदि सुनना श्रवण कहलाता है। इनमें साधक अपने गुरू तथा संतों के द्वारा भगवान की चर्चा सुनता है।

2. कीर्तन- सत्संग में भगवान के नाम गुण लीला का जो श्रवण किया है उसे अपने जीवाश्म में लाने के लिए भगवन्नाम का जप तथा गुण रूप और लीला का वर्णन गान करना, भगवान या शक्ति के भजन गीत गाना कीर्तन कहलाता है।

3. स्मरण- जो कुछ भगवान के संबंध में सुना और पढ़ा है उसका मन से बार-बार चिंतन करना स्मरण कहलाता है। इसके अन्तर्गत भगवान के गुणों का चिन्तन निरन्तर करते रहना होता है।

4. पाद सेवन- भगवान के श्रीचरणों की सेवा करना पाद सेवन कहलाता है। यह दो प्रकार से किया जाता है। प्रथम भगवान के प्रतिमा के चरणों की सेवा करना द्वितीय मन में भगवान के नाम रूप का चिन्तन करते हुए उनके श्री चरणों में समर्पण भाव से सेवा करना। इसमें भक्त पैरों को धोकर सजाकर मन में उनके प्रति श्रद्धाभाव रखकर साधना करता है।

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5. अर्चना- यह शक्ति पादसेवन से पृथक है। इसमें शास्त्रों में वर्णित रीति से भगवान की पूजा व अर्चना की जाती है। इसमें भक्त बाह्य सामग्री द्वारा अथवा मन द्वारा कथित सामग्रियों की भावना से भगवान का श्रद्धापूर्वक पूजन करता है।

6. वन्दना- अपने को असहाय मानकर सब कुछ परमात्मा पर छोड़ देना उन पर पूर्ण समर्पण करना ही वन्दना है। भक्त उनको साकार मानकर साष्टांग प्रणाम आदि करता हैं स्वयं को प्रभु की शरण में ले जाता है।

7. दास्य- अपने समस्त कर्म भगवान को अर्पित करते हुए उन्हीं का दास होकर रहना। इस अवस्था के आने पर साधक के मन में सांस्कृतिक विषयों के प्रति वैराग्य दृढ़ होता चला जाता है और भगवत् प्रेम हृदय में उत्पन्न होने लगता है। भक्ति का यह मार्ग एक ऐसा सरल मार्ग है जिसके मन में ऐसा भाव रखना कि वे हमारे स्वामी है और हम उनके सेवक है उन भावों के साथ कर्म करना दास्य भक्ति कहलाती है। हनुमान जी की भी भगवान राम के प्रति इसी प्रकार की भक्ति थी।

8. साख्य- अपने आराध्य देव के प्रति मित्रता का भाव रखकर उनकी भक्ति करना साख्य भक्ति कहलाती है। इस भक्ति में साधक भगवान में दृढ विश्वास रखता है। मन में ऐसा भाव रखता है कि भगवान जो कुछ करेंगे हमारे मंगल के लिए ही करेंगे। अर्जुन की श्रीकृष्ण के भक्ति इसी प्रकार की भक्ति थी।

9. आत्मनिवेदन- अपना ज्ञान अपनी बद्धि अपना संकल्प मन तथा अपना कर्म अपना सत्व सब कुछ भी अपना न समझकर भगवान का समझना आत्मनिवेदन कहलाता है। भक्ति साधना को निम्नलिखित दो श्रेणियों में भी विभाजित किया गया है-

(1) अपरा भक्ति

(2) परा भक्ति

परा भक्ति द्वारा सामान्य मनुष्य भी आसानी से लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। आवश्यकता केवल प्रभु में पूर्ण आस्था और श्रद्धा की है।

1. अपरा भक्ति- इसे गौणी भक्ति भी कहते हैं इसमें भक्ति को एक साधन के रूप में अपनाते हैं। इसमें साधक बाह्य सामग्री के द्वारा अपने ईष्ट की भक्ति करता है।

2. परा भक्ति- यह भक्ति की उच्च अवस्था है। जिस प्रकार तेल का एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालते समय तेल की अविच्छिन्न धारा बहती है, उसी प्रकार जब मन भगवान के सतत् चिन्तन में लग जाता है तो पराभक्ति की अवस्था आती है। यह अवस्था गौणी भक्ति का परिपक्व अवस्था है। साधक इस अवस्था में प्रभु के प्रेम में इतना लीन हो जाता है। कि संसार के दु:ख भी उसे सुखरूप दिखाई देने लगते है। कष्टों को भी वह अपने प्रभु की भेंट समझकर सहर्ष स्वीकार करते हैं। भक्ति के दो अन्य प्रकार वैधिकी और रागात्मिका भी वर्णित किये गये हैं।

वैधिकी भक्ति में साधक जिस सम्प्रदाय से संबंध रखता है उसी सम्प्रदाय के नियमों और उसी सम्प्रदाय के साधनों के अंगों का पालन करता हुआ अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। प्रायः वैधिकी के परिणामस्वरूप ही रागात्मिका भक्ति प्राप्त होती हैं। इसमें साधक को इष्ट देव के प्रति राग हो जाता है। वह सब नियमों के ऊपर उठ जाता है और अपने स्वभाव के अनुसार चलता है। मीरा, चैतन्य महाप्रभु, रसखान, रामकृष्ण परमहंस आदि की भक्ति इसी प्रकार की भक्ति थी। भक्ति मार्ग में अनेक सम्प्रदाय हैं। जिनकी साधना शैली भिन्न-भिन्न हैं। परन्तु फिर भी सबके सब भगवान के प्रेम में खो जाने की स्थिति में ही विश्वास रखते हैं। मनुष्य जब अपने को बंधन से मुक्त होने में असमर्थ पाता है और दु:खों का अनुभव करने लगता है तो वह भगवान की शरण में जाता है और उन्हीं से छुटकारे की प्रार्थना करता है।

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