त्रिऋण का अर्थ
त्रिऋण जिसे की सनातन संस्कृत में तीन ऋणों के रूप में भी
जाना जाता है। त्रिऋण का अर्थ है- तीन ऋण। ये तीनों ऋण हैं- पितृऋण, देवऋण एवं ऋषिऋण। एक सामाजिक प्राणी के रूप में प्रत्येक
मनुष्य पर ये तीन ऋण उधार रहते हैं जिसे चुकाने भारतीय संस्कृति एवं धर्म मनुष्य
को प्रेरित करते हैं। ऋणों के इस सिद्धान्त ने भारतीय विचारधारा तथा भारतीय महान
कृतियों की रक्षा में अतुलनीय योगदान दिया है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार बालक जन्म
लेते ही इन तीन ऋणों का ऋणी हो जाता है।
ऋण की व्यवस्था मुख्य रूप से आने वाली पीढ़ी के प्रति दायित्व का निर्वाह है। यह मानवजाति का संरक्षण तथा उसके ज्ञान एवं संस्कृति का हस्तान्तरण कही जा सकती है। मुख्य ऋण तीन हैं- पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण।
ऋषिऋण क्या है
बालक के व्यक्तित्व के विकास में शिक्षा का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। यह शिक्षा बालक ब्रह्मचर्याश्रम में रहते हुए प्राप्त करता था। बालक पर गुरु के साथ-साथ उन ऋषियों का भी ऋण होता था जिनके ज्ञान के भंडार से वह लाभान्वित होता था। वस्तुतः यही उस पर ऋषिऋण था।
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शतपथ ब्राह्मण ब्रह्मचार्याश्रम में प्रवेश द्वार को इस ऋण से उऋण होने का साधन कहता है। यहाँ प्रवेश का वास्तविक उद्देश्य गुरु द्वारा दी गई शिक्षा को समुचित रूप से धारण करना था। यह न हो तो शिक्षा व्यर्थ चली जाये। इस हेतु शास्त्रों को याद करना आवश्यक था। भारतवर्ष में सारे प्राचीन ग्रन्थ श्रुति परम्परा के द्वारा ही लोगों की स्मृति में जीवित बने रहे है। यदि यह परम्परा नहीं होती तो निश्चय ही ज्ञान का विशाल भंडार लुप्त हो गया होता। इस प्रकार ऋषिऋण के द्वारा न केवल ज्ञान का प्रसार होता था वरन् ज्ञान की रक्षा भी होती थी। इस ज्ञान को बालक बड़ा होने पर अगली पीढ़ी को थमाकार सही अर्थों में ऋषिऋण से मुक्त होता था।
पितृऋण क्या है
पितृऋण नाम से ही यह स्पष्ट है कि यह पिता का ऋण है। इसे
चुकाने हेतु विवाह कर संतान उत्पत्ति का आदेश दिया गया है। यदि यह नहीं हो तमाम
मानव जाति का संरक्षण कैसे हो पायेगा? व्यक्ति की वंश परम्परा कैसे आगे बढ़ेगी ?
उल्लेखनीय है कि इन ऋणों से मुक्ति विभिन्न आश्रमों में
रहते हुए सम्भव बताई गई है। जैसे, पितृऋण
से मुक्ति गृहस्थाश्रम में सम्भव मानी गई है। गृहस्थाश्रम में प्रवेश हेतु विवाह
संस्कार तो आवश्यक था ही, संतान
उत्पत्ति हेतु तथा संतान के जन्म के पश्चात् भी विभिन्न संस्कार आवश्यक बताये गये
थे,
ताकि संतान एक श्रेष्ठ मानव बन सके।
देवऋण क्या है
देवऋण देवताओं के प्रति ऋण है। जैसा कि हमने ऊपर देखा वैदिक
आर्यों ने प्राकृतिक शक्तियों को देव कहा था क्योंकि वह उन्हें तरह-तरह से जीवन
दान देती थी। इन देवों के प्रति स्तुति में वैदिक ऋषियों ने अनेकानेक ऋचाएँ रची
है। किन्तु केवल शाब्दिक स्तुति से इन देवों के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता था, न ही इनसे प्रकृति में सन्तुलन कायम किया जा सकता था। अतः
वैदिक ऋषियों ने अनेकानेक प्रकार के यज्ञों की विधियाँ बताई ताकि इन्हें यज्ञ
द्वारा हविष्य प्रदान किया जा सके। इन यज्ञों को नियमित रूप से करने पर धार्मिक
परम्परा की रक्षा भी होती थी। यज्ञ गृहस्थाश्रम तथा वानप्रस्थाश्रम दोनों में किये
जा सकते थे।
शतपथ ब्राह्मण में केवल ब्राह्मण पर ही इन तीन ऋणों का स्वीकार किया गया था जबकि जैमिनी के अनुसार तीनों उच्च वर्णों पर ये ऋण थे तथा उन्हें इनसे मुक्त होना आवश्यक था। उल्लेखनीय है कि उपनयन संस्कार में बालक को तीन धागों का यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है इसका तात्पर्य ही है कि उस पर तीन ऋण हैं जिनसे उसे उऋण होना है। डॉ. काणे के अनुसार आध्यात्मिक एवं धार्मिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति पर ये ऋण होते है। अति प्राचीन वैदिक कालों से ही यह धारणा भारतीय संस्कृति की मौलिक धारणा में परिगणित रही है। इस प्रकार हमें अपने सनातन संस्कृति में वर्णित तीन प्रकार के ऋणों का वर्णन प्राप्त होता है।
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