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रामकृष्ण परमहंस का जीवन परिचय | Ramakrishna Paramahamsa | स्वामी रामकृष्ण परमहंस

नाम- स्वामी रामकृष्ण परमहंस
बचपन का नाम- गदाधर
जन्म समय- 18 फरवरी सन् 1836
जन्म स्थान- कमारपुर गावं, बंगाल
पिता का नाम- खुदीराम चट्टोपाध्याय
माता का नाम- चंद्रमणि देवी

स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फरवरी सन् 1836 को बंगाल प्रांत के कामारपुर नामक ग्राम में हुआ। इनके बाल्यकाल का नाम गदाधर था। रामकृष्ण परमहंस के पिता का नाम खुदीराम चट्टोपाध्याय एवं माता का नाम चंद्रमणि देवी था। ये सुन्दर, चपल और चंचल स्वभाव के थे। 6 वर्ष की अवस्था में ही गदाधर को अपने अन्तर्मन की दिव्य अनुभूतियों का अनुभव होने लगा था। जून अथवा जुलाई 1848 में वे आंचल में थोड़ी सी भुनी हुई चबेना बांधे हुए खेतों की ओर जा रहे थे इतने में एक अपूर्व घटना घटित हुई जिसका वर्णन इस प्रकार किया-मैं खेतों के बीच पगडंडी पर चला जा रहा था वहां मैंने जब आंखें उठाकर आकाश की ओर देखा तो एक बहुत काला मेघ बड़ी तेजी से फैल रहा था सारा आकाश उससे आच्छादित हो गया।

एकाएक एक छोर से बर्फ के समान सफेद बगुलों की एक पंक्ति उड़ती हुई और मेरे सिर के ऊपर से निकल गई। रंगों का विपर्यय इतना आकर्षक था कि मेरा मन न जाने कहां उड़ गया। मैं अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ा। सारा चबेना बिखर गया। कोई मुझे गोद में उठाकर घर ले आया। मैं आनन्द और भावों के अतिरेक में डूब गया। समाधि का अनुभव मुझे पहली बार तभी हुआ।" तब से ऐसी अचेतावस्था होने लगी जिससे माता-पिता को चिन्ता होने लगी। घर वाले इनकी इस अवस्था को शारीरिक व्याधि समझने लगे। काफी डॉक्टर और वैद्यों के द्वारा इनकी चिकित्सा करायी गयी किन्तु इनकी अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया। वैद्यों ने कहा यह बीमारी शारीरिक या मानसिक नहीं है। यह कोई दिव्य अवस्था है।

Biography-of-Swami-Ramakrishna

प्रतिभाशाली गदाधर अपने हाथों से मूर्तियाँ बनाते और उनमें खो जाते। मन्दिरों में वे श्रीराम कथा और श्री कृष्ण कथा ललित स्वर में गाते और विद्वानों से तर्क-वितर्क करने में सदा अग्रसर रहते। सात वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया। अब इनका परिवार आर्थिक संकट में फंस गया। इनके बड़े भाई राजकुमार ने कलकत्ता में पाठशाला खोली और 1852 में वे छोटे भाई गदाधर को अपने साथ कलकत्ता ले गये परन्तु गदाधर ने पढ़ना स्वीकार नहीं किया।

कलकत्ता में उन्हीं दिनों एक रानी जिनका नाम रासमणि थावो जाति में शूद्र थीउन्होंने माँ महाकाली का मन्दिर गंगा के पूर्व तट पर बनवाया। उनके शूद्र होने के कारण कोई भी ब्राह्मण उस मन्दिर का पुजारी पद ग्रहण नहीं करना चाहता था। अर्थाभाव के कारण इनके बड़े भाई राजकुमार ने यह पद स्वीकार कर लिया। एक वर्ष बाद राजकुमार की मृत्यु हो जाने पर गदाधर ने पुजारी का दायित्व ग्रहण किया।

अब गदाधर देवी की सेवा भक्ति और साधना में तत्लीन हो गये। इसी बीच इनकी माता की इच्छा से इनका विवाह पांच वर्ष की शारदा नामक लड़की से हो गया। विवाह के उपरांत प्रथा के अनुसार वहबी पितृ गृह लौट गई, और 8 वर्षों तक उसने पति के दर्शन नहीं किये। इधर रामकृष्ण काली माँ की सेवा में लगे रहे। कुछ समय बाद एक अभिजात वर्ग की ब्राह्मण महिला से इनकी भेंट हुई जिन्होंने इन्हें साधना के लिए किसी योग्य गुरू का आश्रय लेने का परामर्श दिया। जिसको इन्होंने सहर्ष स्वीकार किया।

सन् 1864 के अंतिम दिनों में 'तोतापुरी' दक्षिणेश्वर पहुंचे। तोतापुरी वेदान्ती सन्यासी थे। रामकृष्ण ने काली माँ की अनुमति प्राप्त कर तोतापुरी से सन्यास की दीक्षा ली और उनके द्वारा निर्देशित निराकार ईश्वर की उपासना में जुट गये। परन्तु वे प्रारंभ में सफल न हो सके। क्योंकि माँ काली के मूर्ति (साकार) के प्रति इनकी अनन्य आस्था थी। उन्हीं के शब्दों में "मैंने कई बार अद्वैत की शिक्षा पर मन को स्थिर करने का प्रयत्न किया किन्तु प्रत्येक बार माँ की मूर्ति बाधा बनकर आ खड़ी हुई।"

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जब इस बाधा के सम्बन्ध में उन्होंने अपने गुरु तोतापुरी से निवेदन किया तो उन्होंने कांच के टुकड़े की नोक रामकृष्ण की दोनों भौहों के मध्य में गड़ाते हुए कहा कि अपने मन को इस बिन्दु पर केन्द्रित करो। तब मैंने पूर्ण बल के साथ ध्यान किया और देवी माँ की भव्य मूर्ति को विवेक की तलवार से खण्डित करते हुए अन्तिम बाधा को दूर किया और मेरी आस्था एकाएक सगुण के पार पहुंच गई और मैं समाधि में डूब गया। 1865 के अन्तिम दिनों में तोतापुरी जी के जाने के बाद रामकृष्ण 6 मास से अधिक अवधि तक समाधिस्थ रहेनिराकार के संग आत्मा के मिलन की यह चरम अवस्था थी।

कालान्तर में रामकृष्ण ने गोविन्दराय आदि से दीक्षा लेकर विभिन्न सम्प्रदायों की साधना की। जिस समय में जिस सम्प्रदाय की साधना करते उसी के अनुरूप जीवन को जीते थे। जैसे इस्लाम की साधना करते समय ये पांचों वक्त नमाज पढ़ते थे। कृष्ण की साधना करते समय ये पूर्ण श्रृंगार करके गोपियों के वेश में रहते थे। इन्होंने इस्लाम, मसीह, हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय की भी साधना की। इनके इन्हीं तप साधनाओं का प्रभाव था कि जब नरेन्द्र ने आकर इनसे पूछा कि क्या आपने ईश्वर को देखा है, तो इन्होंने सहज ही उत्तर दिया है- हाँ, ठीक उसी तरह जिस तरह मैं तुम्हें देख रहा हूँ।"

इसी से प्रभावित होकर नरेन्द्र ने इनका शिष्यत्व ग्रहण किया और बाद में स्वामी विवेकानन्द हुए। उनके आध्यात्मिक ज्ञान से प्रभावित होकर उस समय के कई प्रतिष्ठित जन इनके शिष्य बने, कइयों ने तो पूर्ण सन्यास लेकर इनके द्वारा प्राप्त ज्ञान को दुनियाँ भर में फैलाने का संकल्प लिया।

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