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दयानन्द सरस्वती का जीवन परिचय | Biography of Dayanand Saraswati | स्वामी दयानन्द

नाम- स्वामी दयानंद सरस्वती
बचपन का नाम- मूलशंकर
जन्म समय- 12 फरवरी सन् 1824
जन्म स्थान- टंकारा, मोरबी, गुजरात
पिता का नाम- कृष्णलाल तिवारी
माता का नाम- अमृतबेन

उन्नीसवीं शताब्दी की दिव्य विभतियों में स्वामी दयानन्द जी का नाम प्रमुख है। उन्होंने तत्कालीन धार्मिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक चेतना का जागृत किया तथा भारतीय पुनर्जागरण आन्दोलनों का सूत्रपात किया। वे प्राचीन वैदीक धर्म के पुनः उद्धारक कहलाये। वेदों के संबंध में प्रचलित विभिन्न अवधारणाओं को निरस्त करने तथा विशुद्ध प्रतिस्थापित करने का श्रेय भी स्वामी दयानन्द जी को ही है।

स्वामी दयानन्द जी का जन्म गुजरात प्रांत के मौरबी राज्यान्तर्गत (वर्तमान राजकोट जिला) टंकारा नामक ग्राम में भाद्रपद कृष्ण नवमी 1881 विक्रमी, तदनुसार सन् 1824 में हआ। इनके पिताजी का नाम श्री कृष्णलाल तिवारी और माता का नाम अमृतबेन था। इनका बचपन का नाम मूलशंकर था। इनके पिता ने बाल्यकाल में ही इन्हें यजुर्वेद आदि वेद शास्त्रों का अध्ययन एवं धार्मिक संस्कारों को स्वयं सिखाया। 8 वर्ष की आयु में इनका उपनयन संस्कार हुआ, और इनके लिए एक योग्य शिक्षक की नियुक्ति की गई जो इन्हें इनके घर आकर पढ़ाया करते थे।

स्वामी-दयानन्द-सरस्वती-का-जीवन-परिचय

इनका बचपन बड़े ही वैभव में बीता क्योंकि इनके पिता उस समय तहसीलदार के पद पर थे। ये बहुत ही कुशाग्रबुद्धि थे। 11 वर्ष की आयु तक इन्होंने यजुर्वेद संहिता और व्याकरण के कुछ प्रथा का परायण कर लिया था। इन दिनों इनके जीवन में एक घटना घटी जिसने इनके जीवन को पूर्ण रूपेण बदल दिया। घटना इस प्रकार घटित हुई शिवरात्रि की दिन पिता के आदेश से इन्होंने व्रत रखा। रात्रि में समस्त परिवार को शिवालय में जाकर रात्रि जागरण करना था। परिवार के समस्त लोग प्रभु भक्ति के भजन गाते बजाते मध्यरात्रि तक सो गये। किन्तु बालक मूलशंकर शिव की साक्षात् दर्शन करने की उत्सुकता से साथ जागते रहे। उस समय उन्होंने देखा कि कुछ चूहे आये और शिवलिंग पर जो प्रसाद चढ़ा था उन्होंने उसे खाया और उसके ऊपर ही मलमूत्र कर दिया।

इस घटना से बालक मूलशंकर के मन में विचार उत्पन्न हुआ कि ये चूहों से अपनी रक्षा नहीं कर सके इसलिए ये सच्चे शिव नहीं हो सकते और रात्रि में ही घर आकर उन्होंने व्रत तोड़ दिया। जब पिता को इनके विचारों का पता चला तो उन्होंने इन्हें बहुत समझाने का प्रयास किया किन्तु वे मूलशंकर की जिज्ञासा को शांत नहीं कर पाये। इन्हीं दिनों इनकी छोटी बहन का देहान्त हो गया। परिवार के सब लोग बिलख रहे थे परन्तु बालक मूलशंकर चुपचाप मृत्यु पर विचार कर रहे थे।

कुछ समय बाद इनके प्रिय चाचा का देहान्त हो गया। इन सब घटनाओं से इनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। जब इनके पिता को इनके भावों का पता चला तो उन्होंने चुपचाप इनकी शादी करने की ठानी। जिसका इन्हें पता चल गया। उन्होंने सोचा कि यहां रहकर मैं सच्चे शिव की खोज नहीं कर पाऊंगा। इसलिए इन्होंने विक्रमी संवत 1903 में 21 वर्ष की आयु में घर छोड़ दिया। घर से चलकर बालक मूलशंकर कुछ साधुओं के सम्पर्क में आये जिन्होंने इन्हें धोखा देकर इनके आभूषण और राजसी वस्त्र ले लिये। यहीं किसी सन्यासी से इन्होंने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली अब इनका नाम शुद्धचैतन्य रखा गया।

कार्तिक पूर्णिमा को सिद्धपुर में एक मेला लगता है। शुद्धचैतन्य मेले में जा रहे थे कि इनके गांव के पास के एक व्यक्ति इन्हें मिले, जिसने इनके घर पर इनके सिद्धपुर मेले में होने की सूचना भिजवा दी। इनके पिताजी चार सिपाहियों को लेकर सिद्धपुर मेले में आये, और इन्हें ढूंढकर काफी भला-बुरा कहा। ये पिता के साथ घर के लिए चल पड़े। किन्तु रास्ते में रात के समय अवसर पाकर ये वहां से भाग निकले। इस बार जीवन का जिज्ञासु ब्रह्मचारी शुद्धचैतन्य योगी महात्माओं की खोज करता हुआ चाणोद करनाली (त्रिवेणी संगम) पहुंच गया। वहां पर 25 वर्ष की आयु में स्वामी पूर्णानन्द जी से सन्यास दीक्षा ली। उन्होंने इनका नाम दयानन्द सरस्वती रखा।

स्वामी पूर्णानन्द से सन्यास आश्रम की मर्यादा के रक्षार्थ जिन नियमों और जप तपादि का उपदेश इन्हें दिया उसका ये विधिवत पालन करने लगे। अब ये विद्याध्ययन में लग गये। जहां भी इन्हें सच्चे योगी और सन्यासियों का पता चलता ये वहीं जाकर उनसे यौगिक क्रिया सीखते और आध्यात्मिक शास्त्रों का अध्ययन करते। इन्होंने पूरे हिमालय का भ्रमण किया। लेकिन इन्हें कोई सच्चा सिद्ध पुरुष नहीं मिला।

हिमालय भ्रमण के पश्चात् हरिद्वार में लगने वाले कुंभ के मेले में संवत् 1912 में आये। इन्होंने विचार किया था कि इस मेले में कोई सच्चा सन्यासी मिल सकेगा। लेकिन उनकी जिज्ञासा की शांति न हो सकी। कहा जाता है कि इन्होंने इस 1857 की क्रांति में भी सक्रिय भाग लिया।

स्वामी-दयानन्द-सरस्वती-का-जीवन-परिचय

कनखल में इनका सम्पर्क स्वामी पूर्णानंद जी से हुआ जिन्हांने इन्हें मथुरा में विरजानन्द जी के पास जाने की सलाह दी, और ये यहां से चलकर सम्वत् 1917 में मथुरा विरजानन्द जी के पास अध्ययन के लिए आये। यहां आकर इन्होंने गुरूसेवा करते हुए व्याकरण शास्त्र का विधिवत अध्ययन किया। अपनी विद्या पूर्ण करने के पश्चात विरजानन्द जी से विदा लेते समय उन्हें दक्षिणा देना चाहा। गुरू विरजानन्द जी ने कहा कि तुम अपना सर्वस्व वैदिक संस्कृति के प्रचार प्रसार में देशसेवा और समाज सेवा में लगा दो। इस प्रकार इन्होंने अध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश कर वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार प्रारंभ किया।

भारत भर में प्रचार करते हुए ये फिर दुबारा हरिद्वार में लगने वाले कुंभ मेले में पहुंचे। वहां पर उन्होंने पाखंड खंडिनी नाम से पताका लहराई। यहां पर इन्होंने सभी सम्प्रदायों व मतों की बुराइयों का खण्डन प्रारंभ किया जिससे इनका विरोध भी हुआ। किन्तु ये अपनी जगह अडिग रहे। धीरे-धीरे उनकी तर्कपूर्ण बातों को सुनकर कुछ लोग इनके शिष्यत्व को ग्रहण करने लगे। अब स्वामी जी ने विभिन्न धर्मावलम्बियों के साथ शास्त्रार्थ करना प्रारंभ किया। इनमें इस्लाम धर्म के मुल्ला, मौलवी, इसाई पादरी और हिन्दू धर्म के शाक्त वैष्णव आदि सम्प्रदायों के धर्मगुरू सभी से शास्त्रार्थ किया। ये शास्त्रार्थ में सदैव विजयी रहे। क्योंकि ये अपनी बात वेदों को आधार मानकर कहा करते थे जो अकाट्य हुआ करती थी। कार्तिक मास संवत् 1928 में काशी में इनका महत्वपूर्ण शास्त्रार्थ हुआ। जिसमें इन्होंने मूर्तिपूजा का खण्डन किया।

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दयानन्द जी धार्मिक उपदेशों के साथ-साथ सामाजिक बुराइयों की ओर भी लोगों का ध्यान आकृष्ट किया करते थे और उन्हें दूर करने का भी प्रयास किया। पुनर्विवाह प्रथा और अछूतोद्धार कार्यक्रम भी इन्होंने चलायी। साथ ही संस्कृत पाठशालाएं खोलकर भारतीय संस्कृति के अनुरूप शिक्षा देने का कार्य भी इन्होंने प्रारंभ किया।

सम्वत् 1931 में ये सर्वप्रथम बम्बई आये और यहां पर इन्होंने आर्य समाज नामक वैदिक संस्था की नींव रखी। आर्य समाज के दस नियम भी बनाये गये। जो बड़े उदार और व्यापक हैं। स्वामी जी ने रक्षा आन्दोलन में भी सक्रिय सहयोग दिया। अब इनकी बातों से प्रभावित होकर बड़े-बड़े राजा महाराजा इनके शिष्य बनने लगे। सर्वप्रथम स्वामी दयानन्द जी ने ही अपने ग्रंथों में स्वराज प्रयोग किया। ये स्वतंत्रता के पोषक थे इसीलिए दूसरे धर्मावलम्बियों के साथ-साथ अंग्रेज सरकार भी इनकी विरोधी थी।

स्वामी जी निरन्तर सभी कष्टों को सहन करते हुए वैदिक संस्कृति के प्रचार प्रसार में लगे रहे। वे अपने अंतिम दिनों में जोधपुर राज्य में पहुंचे। वहां एक वैश्या ने उनसे रूष्ट होकर इनके रसोइये को अपनी ओर मिलाकर इन्हें दूध के साथ तीव्र विष दिला दिया। जब इन्हें विष का आभास हुआ तो इस दया के महान मूर्ति ने अपने पास से 100 स्वर्ण मुद्राएं देकर अपने रसोइये जगन्नाथ को देश से चले जाने को कहा जिससे कोई इसके प्राणों को हानि न पहुंचा सके। इनका काफी इलाज किया गया किन्तु विष इतना प्रभावी था जो चिकित्सा से भी दूर न हो सका इनको जोधपुर से आबू ले जाया गया किन्तु वहां पर इनकी हालत में सुधार नहीं हुआ। आबू से अमजमेर लाया गया जहाँ स्वास्थ्य में कुछ लाभ हुआ, किन्तु बाद में हालत बिगडती गई और इस प्रकार 30 अक्टूबर सन् 1883 को दीपावली के दिन इन्होंने अपने शरीर का परित्याग कर दिया।

स्वामी दयानन्द जी ध्यान योग के साधक थे। जिसे आर्ष योग, अष्टांग योग या राजयोग कहा जाता है। महर्षि पतंजलि की अष्टांग योग की साधना को ये सर्वोत्कृष्ट मानते थे। पतंजलि की ही भांति ये भी शुद्ध आचार-विचार पर अधिक बल देते थे। शुद्ध व्यवहार के बिना ये आध्यात्मिक विकास को संभव नहीं मानते थे। स्वामी जी ने संध्या उपासना आदि पर विशेष बल दिया। जिससे मानसिक शद्धि हो सके क्योंकि मानसिक शुद्धि होने पर ही लौकिक और पारलौकिक जीवन सुन्दर हो सकता है। इन्होंने ऋग्वेद और यजुर्वेद का भाष्य किया। सत्यार्थ प्रकाश इनका सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ है। ऋगवेदादि भाष्य भूमिका आर्याझिविनय आदि इनके मुख्य ग्रंथ हैं।

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