जन्म स्थान- गुजरात
पिता का नाम- गणेश गुने
स्वामी कुवल्यानंद जी का जन्म गुजरात में 30 अगस्त सन् 1883 को हुआ था। स्वामी जी अपने विद्यार्थी जीवन में एक मेधावी छात्र थे। वह महान बुद्धिमत्ता वाले व्यकित थे वह संस्कृति के अग्रणी छात्र के रूप में रहे। मैट्रिक परीक्षा के बाद इन्होंने सम्यक छात्रवृति प्राप्त की। वह मैट्रिक में राज्य स्तर मे सभी विद्यर्थियों में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थी थे। जीवन में ये लोक मान्य तिलक और श्री अरविंद जैसे राजनीतिकों से अत्याधिक प्रभावित थे। इनसे प्रभावित होकर इन्होने मानवता की सेवा करने का अपना विचार बनाया।
अपने प्रथम गुरू राजरत्न “माणिक राव” से उन्होंने 1907 से 1910 तक शरीरिक शिक्षा में प्रशिक्षण प्राप्त किया, सन् 1919 मे स्वामी जी परमहंस माधव दास जी महाराज के सम्पक में आये। इनसे इन्होंने योग विद्या के गुप्त रहस्यों को जाना और अन्य यौगिक क्रियाएँ भी सीखी। माधवदास जी की शिक्षा से प्रभावित होकर उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन योग की वैज्ञानिक विधि को सामान्य मनुष्यों तक पहुँचाने का मन बनाया। ये योग की विधियों और अपने गुरू के प्रति पूर्ण श्रद्धावान एवं समर्पित थे। इनके विचार से योग ऐसी विद्या है जिसके माध्यम से एक सामान्य मनुष्य भी ऊँचे स्थान पर पहुच सकता है।
इसके पश्चात् इन्होंने मन व शरीरस्थ शक्ति का विस्तृत अध्ययन किया और यौगिक क्रियाओं का शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों को नवीन विज्ञान की विधियों के द्वारा प्रयोगात्मक रूप में जानना प्रारम्भ किया। इनके प्रयोग मुख्यता योग की मुख्य क्रियाओं- मुद्रा, प्राणायाम, बंध आदि के ऊपर रहे।
इन क्रियाओं का प्रयोग करते समय इन्होंने चिकित्सकों व एक्स रे मशीनों आदि की सहायता लेकर शरीर पर पड़ने वाले इन क्रियाओं के प्रभावों को देखा। इन सभी क्रियाओं का शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव को देखने के लिए उन्हें आधुनिक प्रयोगशालाओं में जाचां परखा। सन् 1924 में इन्होंने मन बनाया कि योग विषय पर अनुसंधान कार्य होना चाहिए।
इसी भाव के साथ ही सन् 1924
ई० में ही इन्होंने 'कैवल्यधाम' नामक
संस्था की स्थापना लोनावाला (महाराष्ट्र) में की। यहीं से इन्होने योग मीमांसा नामक
पत्रिका का सम्पादन भी प्रारम्भ किया जो कि योग के वैज्ञानिक पक्ष को प्रस्तुत
करने वाली महत्वपूर्ण पत्रिका थी। जिसमें योग से सम्बंधित शोध पत्र होते थे। जिनका
आधार वैज्ञानिक और लोक प्रचलित सिद्धान्तों पर आधारित दोनों प्रकार का होता था।
इसमें शरीर क्रिया विज्ञान मनोविज्ञान तथा योग क्रियाओं से सम्बंधित लेख होते थे।
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सन् 1936 में सरकार से प्राप्त भूमि पर श्रीचमनलाल जी के दान से तथा उनके बेटे के नाम पर श्री ईश्वरदास चुन्नीलाल योगाश्रम यौगिक स्वास्थ्य केद्र रखा। लोनावाला में ही इन्होंने योग के प्रचार प्रसार के उद्देश्य से योग संस्कृति व आध्यात्म के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। इस विद्यालय का उद्देश्य युवकों में सांस्कृतिक अध्यात्मिक व मानवीय गुणों का विकास करना था। इस विद्यालय में योग विषय के ऊपर विभिन्न महत्वपूर्ण शोधकार्य किये जाते रहे हैं।
पोरबंदर के राणा नटवर सिंह के नाम पर इन्होंने कैवल्यधाम में ही राणा नटवर सिंह शरीर विकृति विज्ञान प्रयोगशाला की स्थापना की आगे चलकर इसका काफी विस्तार हुआ। सन 1939 में चौपाटी के पास इन्होंने 'बाम्बे हैल्थ सेन्टर' के नाम से एक केंद्र खोला। सौराष्ट्र के राजकोट नामक शहर में सन् 1943 में कैवल्यधाम की एक शाखा खोली। इसी वर्ष इन्होंने यौगिक साहित्य और उसमें नवीन वैज्ञानिक अनुसंधान करने के लिए कैवल्यधाम मे ही 'श्रीमाधव योग मंदिर' नामक एक समिति का गठन किया।
इस समिति में आजीवन सदस्यों के रूप में विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों को रखा गया। सन् 1951 में गोर्धनदास सेकसरिया कॉलेज ऑफ योग एण्ड कल्चर सिंथेसिस की स्थापना लोनावाला में निष्काम मानवता की सेवा के लिये युवाओं को अध्यात्म और विद्वता की शिक्षा के लिये की।
योग के चिकित्सा सम्बंधी महत्व को देखते हुए सन् 1961 में इन्होने लोनावाला मे ही श्रीमती अलकादेवी तीरथ राम गुप्ता यौगिक अस्पताल की स्थापना की। लोनावाला मे ही इन्होंने योग, संस्कृति व अध्यात्म के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। इसमें महत्वपूर्ण योजनाएं स्वामी जी की देख रेख में चलती थी, इस विद्यालय में योग विषय के ऊपर विभिन्न महत्वपूर्ण शोध कार्य किये गये। देश विदेश में कैवल्यधाम के प्रशिक्षित युवा योग शिक्षकों के रूप में नियुक्त हुए। स्वामी कुवल्यानंद जी द्वारा स्थापित सन् 1924 में योग संस्था कैवल्यधाम के योग के प्रचार प्रसार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
बहुत सी राज्य सरकारों ने स्वामीजी को अपने यहां योग शिक्षा व योग चिकित्सा के प्रचार प्रसार हेतु बुलाया। विभिन्न शिविरों में इन्होंने योग की शिक्षा देते हुए क्रियात्मक योग में बहुत से लोगों को प्रशिक्षित किया। स्वामी जी भारतीय योग विज्ञान में पूर्णश्रद्धा रखते थे। वे मानते थे कि योग भारत की एक ऐसी धरोहर है। जिसके द्वारा व्यक्ति का सर्वागीण विकास हो सकता है। यह जीवन जीने की एक कला है, जिससे हम शरीर मन व बुद्धि का स्वस्थ्य बनाते हुए सुन्दर ढंग से जीते हुए आध्यात्मिक विकास कर सकत है।
स्वामी कुवल्यानंद जी के द्वारा स्थापित यह संस्था भारत भर में प्रशिक्षण शिविरों, सम्मेलनों तथा संगोष्ठियों आदि के माध्यम से योग शिक्षा के प्रचार प्रसार में लगी है। भारत के विभिन्न शहरों में आज इसकी विभिन्न शाखाएँ कार्यरत है। योग शिक्षा के के अध्ययन अध्यापन के साथ साथ योग चिकित्सा व यौगिक प्रशिक्षण का कार्य भी सुचारू रूप से कर रही हैं। यहां से निकलने वाले विद्यार्थी देश विदेश के विभिन्न भागों में योग के शिविरों द्वारा योग का प्रचार व प्रसार कर रहे हैं। 18 अप्रेल सन् 1966 को स्वामी जी ने अपने शरीर को त्याग दिया।
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