महर्षि याज्ञवल्क्य का जीवन का परिचय
महर्षि याज्ञवल्क्य जी का नाम एक महान अध्यात्मवेत्ता, योगी, ज्ञानी, धर्मात्मा, श्रीरामकथा के प्रवक्ता के रूप में सबने सुना है। इनका नाम ऋषि परम्परा में बड़े आदर के साथ लिया जाता हैं। पुराणों में इन्हें ब्रह्मा जी का अवतार बताया गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य वेदाचार्य महर्षि वैशम्पायन के शिष्य थे। इन्होंने अपने गुरू वैशम्पायन जी से वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। एक मान्यता के अनुसार एक बार गुरू से कुछ विवाद हो जाने के कारण गुरू वैशम्पायन जी इनसे रूष्ट हो गये और कहने लगे कि तुम मेरे द्वारा पढ़ाई गई यजुर्वेद को वमन कर दो। गुरूजी की आज्ञा पाकर याज्ञवल्क्य जी ने अन्नरूप में वे सब ऋचाएं वमन कर दी जिन्हें वैशम्पायन जी के दूसरे शिष्यों ने तीतर, बनकर ग्रहण कर लिया। यजुर्वेद की वही शाखा जो तीतर बनकर ग्रहण की गयी तैतरीय शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई।
इसके पश्चात् याज्ञवल्क्य जी एक अन्य गुरूकुल में गये वहां पर विद्याध्ययन करने लगे। इनकी सीखने की प्रवृत्ति भी तीव्र थी। ये स्वाभिमानी स्वभाव के थे। यहां भी किसी बात को लेकर गुरू के साथ इनका विवाद हो गया और इन्होंने सोचा मैं इस लोक में किसी को अपना गुरू नहीं बनाऊंगा। अब उन्होंने वेद ज्ञान व अध्यात्म के विद्या को प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय किया व इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए इन्होंने भगवान सूर्य की उपासना की।
याज्ञवल्क्य की स्तुति प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान सूर्य प्रकट हुए व कहा कि मैं आपकी जिह्वा पर साक्षात् सरस्वती को विराजमान करता हूं। इसके पश्चात् सूर्य से प्राप्त ज्ञान के आधार पर 'सरस्वती' की कृपा से इन्होंने 'शुक्ल यजुर्वेद' की रचना की जो पहले से विद्यमान नहीं थी। ज्ञानार्जन में ये अपने समय के ऋषियों में अग्रणी रहे। दिनोंदिन इनकी प्रसिद्धि बढ़ने लगी, इनके शिष्यों की संख्या बढ़ती गयी। कहा जाता है इनके पूर्व के गुरूओं ने भी इनका शिष्यत्व ग्रहण कर अध्यात्म क्षेत्र की उच्च अवस्थाओं को इनसे जाना।
अध्ययन के बाद इन्होंने गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया। इनकी पहली पत्नी का नाम कात्यायनी था। इनका एक राजपरिवार में आना जाना था। वहां के सेनापति के साथ इनके पारिवारिक संबंध थे। उसकी पुत्री मैत्रेयी इनके तेजस्वी रूप पर और उच्चतम ब्रह्मविद्या के फलस्वरूप इनके प्रति आसक्त हो गयी। जब इस बात का पता इनकी पहली पत्नी कात्यायनी को चला तो उसने याज्ञवल्क्य जी को सहर्ष मैत्रेयी से विवाह के लिए तैयार किया। इस प्रकार इनकी दूसरी शादी सम्पन्न हुई। कात्यायनी और मैत्रेयी भी अपने समय की विदुषी महिलाएं थीं। याज्ञवल्क्य मिथिला नरेश जनक के पुरोहित थे। राजा जनक सच्चे जिज्ञासु थे। वे किसी ब्रह्मनिष्ठ को अपना गुरू बनाना चाहते थे। जनक जी ने इस प्रकार उनके पांडित्य की परीक्षा लेकर उन्हें अपना गुरू बनाया। और उनके द्वारा ब्रह्म ज्ञान का सम्पादन किया।
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याज्ञवल्क्य जी के तीन पुत्र और अनेकानेक शिष्य हुए। इनकी पत्नी पुत्र सभी उच्च कोटि के विद्वान थे ये उच्च कोटि के विद्वान् के साथ-साथ एक सच्चे ब्रह्मवेत्ता योगी थे। इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की जिनमें याज्ञवल्क्य स्मृति इनका प्रसिद्ध ग्रंथ है। यह स्मृति ग्रंथ आचाराध्याय व्यवहाराध्याय तथा प्रयासचित्ताध्याय इन तीन भागों में विभक्त है। आचाराध्याय में वर्णक्रम धर्म-अधर्म विषयक तथा व्यवहाराध्याय में प्रायश्चित विषयक, उपदेश और आवश्यक बातें बतायी गयी हैं। इस ग्रंथ पर विज्ञानेश्वर पंडित की मिताक्षरा नामक टीका है। मिताक्षरा अति प्रसिद्ध है। ब्रिटिश काल में न्यायालयों में हिन्दुओं के धार्मिक प्रश्नों को हल करने के लिए इसका संदर्भ लिया जाता था।
याज्ञवल्क्य जी ने आयु के चौथे प्रहर में सन्यास ग्रहण किया और वन में जाकर योग साधना की। इनके सन्यास धारण की घटना भी बड़ी रोचक है। घटना इस प्रकार घटी- एक बार राजा जनक ने पूछा भगवन् वैराग्य किसे कहते हैं? आप कहते हैं कि वैराग्य के बिना मुक्ति संभव नहीं है। मुझे सत्य सुबूत जानने की बड़ी उत्कंठा है। जनक का यह प्रश्न सुनकर याज्ञवल्क्य विचार करने लगे कि जनक ने ऐसा प्रश्न क्यों किया। मूढ़ को तो वैराग्य की व्याख्या करके समझाया जा सकता है। परन्तु जनक तो तत्वज्ञानी हैं। शायद जनक वैराग्य को प्रत्यक्ष देखना चाहते हैं, क्योंकि वैराग्य को तो हम दोनों ही जानते हैं किन्तु उसका आचरण नहीं करते। इस प्रकार विचार कर याज्ञवल्क्य ने कहा कि राजन 'इस प्रश्न का उत्तर कल दूंगा।' और याज्ञवल्क्य घर जाकर अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति का बंटवारा दोनों पत्नियों में बराबर करना चाहा। जिस पर मैत्रेयी ने कहा कि हे प्राणानाथ! मुझे लोक सम्पदा नहीं चाहिए। मुझे तो आप आध्यात्मिक उपदेश दीजिए जिससे मेरा कल्याण हो सके इस पर याज्ञवल्क्य ने सारी सम्पत्ति कात्यायनी को देकर मैत्रेयी को आध्यात्मिक उपदेश देते हुए मृत्यु के रहस्य को समझाया।
प्रात:काल मैत्रेयी के साथ सन्यास धारण किया।
यथासमय कौपीन धारण कर राजा जनक की सभा में जाकर उन्हें प्रणाम किया। राजा जनक ने
विस्मित होकर पूछा कि यह क्या है? याज्ञवल्क्य ने कहा जनक यह
तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। यही वैराग्य का सत्य स्वरूप है। जनक ने क्षमा मांगते
हुए कहा कि मैं सत्यस्वरूप समझ गया हूं। अब आप शीघ्र ही इस वेश का त्याग करें।
याज्ञवल्क्य ने कहा कि हे राजन! जिस प्रकार मलमूत्र का त्यागकर पुनः उसकी ओर कोई
भी दृष्टिपात की इच्छा नहीं करता। सरिता का जल पुनः पर्वत पर नहीं चढ़ता। इसी
प्रकार की अनेक बातें समझाते हुए कहा कि मैं तो परमात्मा को धन्यवाद करता हूं,
जिन्होंने अनायास ही मुझे सांसारिक मोहमाया के बंधन से मुक्त किया
है। अब पुनः इस संसार चक्र में नहीं फंसना चाहता। इस प्रकार जनक को उपदेश करते हुए
राजर्षि पद को त्यागकर वे वन में गये और योग साधना में निरत हो गये।
याज्ञवल्क्य एक ब्रह्मनिष्ठ योगी थे। उन्होंने अभ्यास, वैराग्य के माध्यम से ज्ञानयोग की साधना करते हुए ब्रह्म को जाना और लोक में उसी का प्रचार किया। महर्षि अपने याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखते हैं -
अयतु परमो धर्मों योगेनात्म दर्शनम्॥
अर्थात् अन्य धर्मों का समादर करते हुए योग के आचरण से परमात्मा का
दर्शन करना चाहिए यही परम धर्म है।
महायोगी याज्ञवल्क्य द्वारा रचित ग्रंथ
शिक्षा के ग्रंथों में उनके द्वारा रचित याज्ञवल्क्य शिक्षा अत्यन्त
प्रसिद्ध है। उन्होंने ही लोकोपकार की दृष्टि से अपने योग ज्ञान से तीन स्मृतियों
की रचना की -
1. बृहद्योगियाज्ञवल्क्य स्मृति
2. याज्ञवल्क्य स्मृति तथा
3. ब्रह्मोक्त योगि याज्ञवल्क्य संहिता।
आचार्य की मान्यता है कि अन्य सभी धर्म दोषयुक्त एवं पुनर्जन्म आदि को देने वाले है। किन्तु योग थोड़ा भी अभ्यस्त होने पर परब्रह्म क साक्षात्कारपूर्वक मोक्ष को प्रदान करने वाला है। जिस व्यक्ति ने योग का अभ्यास नहीं किया, वह चाहे जितना भी अध्ययन अध्यापन करता रहे और अहर्निश प्रवचन भी करता रहे, उससे उसे आत्मतुष्टि या परमात्म प्राप्ति की सम्भावना नहीं है वह उसका प्रलापमात्र है। इसलिए मुख्य योगशास्त्रों का अध्ययन कर बुद्धिमान मनुष्य को योग परायण होना चाहिए। अन्यथा जैसे पंख होने पर पक्षी अपने घोंसले को छोड़ देते हैं उसी प्रकार अयोगी ब्रह्मसाक्षात्कार रहित व्यक्ति का मरते समय देह भी छोड़कर किनारे हो जाते हैं।
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