योगराजोपनिषद का परिचय
योगराजोपनिषद्
एक योगपरक उपनिषद् है। इस उपनिषद् के नाम से ही स्पष्ट होता है कि यह उपनिषद्
योगपरक उपनिषदों में सर्वाधिक श्रेष्ठ है, इसीलिए इस उपनिषद् को 'योगराज' की संज्ञा
प्रदान की गई है अर्थात् योगराजोपनिषद् के नाम से जाना जाता है। यह उपनिषद् किस
वेद से लिया गया है अर्थात् किस वेद का भाग है इसका वर्णन कहीं पर भी प्राप्त नहीं है। उपनिषद क्या हैं एवं मुख्य उपनिषदों की संख्या इस विषय में हम पूर्व में ही जान चुके हैं।
योगराजोपनिषद् में कुल 21 मन्त्र हैं, इन 21 मंत्रों में योग विषयक सिद्धान्तों को बड़े सरल शब्दों में व्याख्यायित किया गया है। इस उपनिषद् में सर्वप्रथम चार योगों अर्थात् मन्त्रयोग, लययोग, हठयोग एवं राजयोग इनका उल्लेख किया गया है। इसके पश्चात् योग के प्रमुख चार अंगों- आसन, प्राणसंरोध अर्थात् प्राणायाम, ध्यान तथा समाधि का विवेचन प्राप्त होता है।
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योग के चार अंगों का वर्णन करने के पश्चात् उपनिषद् में 9 चक्रों- ब्रह्मचक्र, स्वाधिष्ठानचक्र, नाभिचक्र, हृदयचक्र, कण्ठचक्र, तालुकाचक्र, भ्रूचक्र, ब्रह्मरन्ध्रचक्र, व्योमचक्र का वर्णन किया गया है तथा उन नौ चक्रों में ध्यान करने की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् अन्त में 9 चक्रों के ध्यान की फलश्रुति बताते हुए योगराजोपनिषद् को पूर्णता प्रदान की गई है। योगराज उपनिषद का परिचय इस प्रकार से प्राप्त होता है।
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