यज्ञ किसे कहते हैं
यज्ञ वैदिक धर्म
और संस्कृति के अपरिहार्य अंग रहे हैं। वैदिक युग में धर्म की सबसे प्रमुख
अभिव्यक्ति यज्ञ ही थे। उस युग में देवताओं की मूर्तियाँ नहीं थी न ही उनके मन्दिर
थे। मनुष्य बिना किसी माध्यम के देवताओं से सीधे सम्पर्क रखते थे। ऐसी स्थिति में
उन्होंने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए, उसके प्रति अपने हृदय के प्रेम को अभिव्यक्त करने के लिए
प्रार्थना और समर्पण करना सीखा।
पंचमहायज्ञ किसे कहते हैं
वैदिक ऋषियों ने गृहस्थों के लिए पंचमहायज्ञों का भी प्रावधान किया था। सीमित साधन और सीमित समय में गृहस्थ इन्हें स्वयं कर सकता था। इसमें पशुबलि की भी आवश्यकता नहीं थी। डॉ. पी. वी. काणे के अनुसार इनका उद्देश्य विधाता, प्राचीन ऋषियों, पितरों, जीवों तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करना था। किन्तु श्रौत यज्ञों में क्रिया की मुख्य प्रेरणा है स्वर्ग, सम्पत्ति, पुत्र आदि की कामना। अतः पंचमहायज्ञों की व्यवस्था में श्रौत यज्ञों की अपेक्षा अधिक नैतिकता, आध्यात्मिकता, प्रगतिशीलता, एवं सदाशयता देखने में आती है।
पंच महायज्ञ क्या है? सम्पूर्ण वीडियो देखें
यज्ञ के प्रकार
वैदिक ऋषियों ने
यज्ञों के पांच प्रकार बताये हैं, जिन्हें पंचमहायज्ञ भी कहा जाता है। ये पंचमहायज्ञ
हैं- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ और नृयज्ञ या मनुष्ययज्ञ। इन पंचमहायज्ञों
का वर्णन निम्नलिखित है, जहाँ पर प्रत्येक यज्ञ को पूर्णरूप से दर्शाया गया है-
1. ब्रह्मयज्ञ क्या है -
ब्रह्मयज्ञ का
तात्पर्य स्वाध्याय है। गृहस्थ को प्रतिदिन एकान्त स्थान में बैठकर धर्मग्रन्थों
का पाठ करना चाहिए। इसके अन्तर्गत चारों वेदों इतिहास, पुराण एवं
दार्शनिक ग्रन्थों का पाठ करने का निर्देश है। स्वाध्याय से व्यक्ति अपने धर्म से
स्वयं परिचित होता था। साथ ही लिखित परम्परा के न होने के कारण इस तरह यह साहित्य
अक्षत भी बना रहा। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार इस यज्ञ से सन्तुष्ट होकर देवता मनुष्य
को आयु, वीर्य, सुरक्षा, समृद्धि, प्रतिभा, कान्ति तथा
अभ्युन्नति प्रदान करते हैं। यहाँ यह भी कहा गया है कि जो प्रतिदिन स्वाध्याय करता
है उसे उस लोक से तिगुना फल होता है, जो दान देने या पुरोहित को धन-धान्य से पूर्ण सारा संसार
देने से प्राप्त होता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि स्वाध्याय को प्रायः सभी भारतीय
दर्शनों ने मोक्ष प्राप्ति में आवश्यक साधन स्वीकार किया है।
2. देवयज्ञ क्या है -
वैदिक आर्य
प्रकृति के प्रति प्रारम्भ से ही कृतज्ञ रहे हैं। इसीलिए प्राकृतिक शक्तियों, यथा, सूर्य, अग्नि, वायु, पृथ्वी आदि को
उन्होंने देवत्व का दर्जा दिया। वस्तुतः इनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए
ही देवयज्ञ किया जाता था। इसमें अग्नि में 'स्वाहा' शब्द के साथ देवता का नाम लेकर समिधा डाली जाती थी। इसमें
त्याग की भावना भी रहती थी। प्रत्येक आहूति के अन्त में इदं देवाय न मम् अर्थात्
यह देवता का है मेरा नहीं है, यज्ञकर्ता कहता था। मनु ने होम को ही देवयज्ञ कहा है।
किन्तु मध्य एवं आधुनिक युग में होम सम्बन्धी प्राचीन विचार निम्नभूमि में चला गया
और उसका स्थान देवपूजा (घर में रखी मूर्तियों का पूजन) ने ले लिया।
3. भूतयज्ञ क्या है -
प्रकृति के साथ
ही प्रकृति में स्थित प्राणियों के प्रति भी वैदिक आर्य सहृदय थे। वैदिक यज्ञों
में पशु बलि अवश्य पशुओं के प्रति क्रूरता लगती है, जिसका विरोध भी होते रहा है पर पंचमहायज्ञों
में से तीसरा यज्ञ, भूतयज्ञ
प्राणियों के प्रति करुणा पर आधारित है। शतपथ ब्राह्मण में प्राणिमात्र के लिए
बलिदान को भूतयज्ञ कहा गया है। इसमें भोजन के पूर्व भोजन का एक भाग पशुओं के लिए
निकाले जाने की व्यवस्था है। आज भी अधिकांश हिन्दू घरों में गाय के लिए ग्रास
अवश्य निकाला जाता है। भूतयज्ञ को बलिहरण भी कहा जाता है। इसमें बलि अग्नि में
नहीं, भूमि पर दी जाती
है। इस हेतु भूमि को पहले हाथ से स्वच्छ किया जाता है फिर उसपर जल छिड़का जाता है
और फिर उस पर पशु के लिए भोजन रखा जाता है।
4. पितृयज्ञ क्या है -
हिन्दुओं द्वारा
मृत पितरों के प्रति आज भी श्रद्धा अभिव्यक्त की जाती है। इसका मूल पितृयज्ञ में
देखा जा सकता है। वस्तुतः यह भी कृतज्ञता का ज्ञापन है जो हम अपने उन पूर्वजों के
प्रति प्रगट करते हैं जिनसे हमने जीवन के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ प्राप्त किया
हुआ है। शुक्लयजुर्वेद में प्रार्थना है कि सोमरस की तरह सूक्ष्म भावानात्मक स्वाधीत
अस्तित्व में प्रविष्ट अग्नि द्वारा परिशुद्ध पितर देवमार्ग से आएँ, प्रकाशरूप में
आगे उपस्थित हों, अपने को हमारे
जीवन में प्रतिबिम्ब और चरितार्थ पाकर तृप्त हों, हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा दें, हमारे ऊपर
स्नेहछाया रखें तथा हमारी रक्षा करें। मनुस्मृति में पितृयज्ञ हेतु तर्पण, बलिहरण और
श्राद्ध का विधान बताया गया है।
5. नृयज्ञ या मनुष्ययज्ञ क्या है -
इसे अतिथियज्ञ भी कहते हैं। भारतीय संस्कृति में अतिथि को वैश्वानर, विष्णु एवं नारायण कहा गया है। इसीलिए अतिथि देवो भव का आदेश दिया गया है। अतिथि का प्रेमपूर्वक सत्कार करना, उसे भोजन कराना ही अतिथियज्ञ है। महाभारत के वनपर्व में अतिथियज्ञ में यज्ञकर्त्ता के लिए पाँच प्रकार की दक्षिणा बताई गई है- आतिथ्यकर्त्ता को अपनी आँख, मन, मीठी बोली, व्यक्तिगत ध्यान एवं अनुगमन (जाते समय कुछ दूर तक साथ- साथ जाना) देना चाहिये। अतिथि सत्कार के नियम हैं आगे बढ़कर स्वागत करना, पैर धोने के लिए जल देना, आसन देना, दीपक जला कर रख देना, भोजन और ठहरने का स्थान देना, व्यक्तिगत ध्यान देना, सोने के लिए खटिया बिछावन देना और जाते समय कुछ दूर तक पहुँचाना।
यह भी कहा गया है, यदि अतिथि निराश
होकर लौट जाता है तो वह अपने पाप गृहस्थ को देकर जाता है और उसके पुण्य लेकर जाता
है। अतिथि के निराश होकर लौटने से गृहस्थ का सारा कुटुम्ब नष्ट हो जाता है। किन्तु
अतिथि हम किसे कहेंगे? मनु के अनुसार
अतिथि वह है जो पूरे दिन (तिथि) नहीं रुकता है, या अतिथि वह ब्राह्मण है जो एक रात्रि के लिए रुकता है।
किन्तु अन्य अनेकानेक ग्रन्थों में अतिथि का ब्राह्मण होना आवश्यक नहीं है।
आपस्तम्बधर्मसूत्र के अनुसार वैश्वदेव के उपरान्त जो भी आ जाए उसे भोजन देना चाहिए
यहाँ तक कि चांडाल को भी। सत्कार तथा भोजन पानी के बाद अतिथि को बिदा करते हुए
गृहस्थ को उसकी प्रदक्षिणा करके कहना चाहिए, पुनर्दर्शानायेति अर्थात् फिर मिलेंगे।
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