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महात्मा बुद्ध का जीवन परिचय | Biography Of Mahatma Buddha | गौतम बुद्ध का जीवन परिचय

नाम- महात्मा बुद्ध
बचपन का नाम- सिद्धार्थ
जन्म स्थान- कपिलवस्तु
जन्म समय- 563 ईस्वी पूर्व
पिता का नाम- शुद्धोधन
माता का नाम- महामाया

महात्मा बुद्ध विश्व के प्रसिद्द धर्म सुधारकों एवं दार्शनिकों में अग्रणी महात्मा बुद्ध (जन्म 563 ईस्वी पूर्व) के जीवन की घटनाओं का विवरण अनेक बौद्ध ग्रन्थ जैसे- ललितबिस्तर, बुद्धचरित, महावस्तु एवं सुत्तनिपात से ज्ञात होता है। भगवान बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के पास लुम्बिनी वन में 563 ईस्वी पूर्व. में हुआ था। महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। महात्मा बुद्ध के पिता शुद्धोधन था जो शाक्य राज्य कपिलवस्तु के शासक थे। इनकी माता का नाम महामाया था जो देवदह की राजकुमारी थी। महात्मा बुद्ध अर्थात सिद्धार्थ (बचपन का नाम) के जन्म के सातवें दिन माता महामाया का देहान्त हो गया था, अतः उनका पालन-पोषण उनकी मौसी व विमाता प्रजापति गौतमी ने किया था।

सिद्धार्थ बचपन से ही एकान्तप्रिय, मननशील एवं दयावान प्रवृत्ति के थे। जिस कारण इनके पिता बहुत चिन्तित रहते थे। उपाय स्वरूप सिद्धार्थ की 18वर्ष की आयु में गणराज्य की राजकुमारी यशोधरा से शादी करवा दी गई। विवाह के कुछ वर्ष बाद एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम राहुल रखा गया। समस्त राज्य में पुत्र जन्म की खुशियां मनाई जा रही थी लेकिन सिद्धार्थ ने कहा, आज मेरे बन्धन की श्रृंखला में एक कडी और जुड गई। यद्यपि उन्हें समस्त सुख प्राप्त थे, किन्तु शान्ति प्राप्त नही थी।

महात्मा बुद्ध का जीवन परिचय

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चार दृश्यों (पद्ध, रोगी, मतव्यक्ति एवं सन्यासी) ने उनके जीवन को वैराग्य के मार्ग की तरफ मोङ दिया। गौतम बुद्ध विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। शाक्य नरेश सिद्धार्थ विवाहोपरांत नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण और दु:खों से मुक्ती दिलाने के मार्ग की तलाश में रात में राजपाठ छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात् बोधगया (बिहार) में बोधी वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए।

गृह त्याग के पश्चात सिद्धार्थ मगध की राजधानी राजगृह में अलार और उद्रक नामक दो ब्राह्मणों से ज्ञान प्रप्ति का प्रयत्न किये किन्तु संतुष्टि नहीं हुई। तद्पश्चात निरंजना नदी के किनारे उरवले नामक वन में पहुँचे, जहाँ आपकी भेंट पाँच ब्राह्मण तपस्वियों से हुई। इन तपस्वियों के साथ कठोर तप किये परन्तु कोई लाभ न मिल सका। इसके पश्चात् सिद्धार्थ गया (बिहार) पहुँचे, वहाँ वह एक वट वृक्ष के नीचे समाधी लगाये और प्रतिज्ञा की कि जबतक ज्ञान प्राप्त नहीं होगा, यहाँ से नही हटूंगा। सात दिन व सात रात समाधिस्थ रहने के उपरान्त आंठवे दिन बैशाख पूर्णिमा के दिन बुद्ध को सच्चे ज्ञान की अनुभूति हुई। इस घटना कोसम्बोधि" कहा गया। जिस वट वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था उसेबोधि वृक्ष" तथा गया के समीप होने पर उस स्थान कोबोध गया" कहा जाता है।

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ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने सर्वप्रथम सारनाथ (बनारस के निकट) में अपने पूर्व के पाँच सन्यासी साथियों को उपदेश दिया। इन शिष्यों को "पंचवर्गीय" कहा गया। महात्मा बुद्ध द्वारा दिये गये इन उपदेशों की घटना को 'धर्म-चक्र-प्रवर्तन' कहा जाता है। भगवान बुद्ध कपिलवस्तु भी गये। जहाँ उनकी पत्नी, पुत्र व अनेक शाक्यवंशिय उनके शिष्य बन गये। बौद्ध धर्म के उपदेशों का संकलन ब्राह्मण शिष्यों ने त्रिपिटकों के अंर्तगत किया।

बौद्ध दर्शन के अनुसार त्रिपिटक संख्या में तीन हैं जो निम्नांकित हैं-

1. विनय पिटक

2. सुत्त पिटक

3. अभिधम्म पिटक।

इनकी रचना पाली भाषा में की गई है। हिन्दू धर्म में वेदों का जो स्थान है, बौद्ध धर्म में वही स्थान पिटकों का हैभगवान बुद्ध के उपदेशों एवं वचनों का प्रचार प्रसार सबसे ज्यादा सम्राट अशोक ने किया। कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार से व्यथित होकर अशोक का हृदय परिवर्तित हुआ उसने महात्मा बुद्ध के उपदेशों को आत्मसात करते हुए इन उपदेशों को अभिलेखों द्वारा जन-जन तक पहुंचाया। महात्मा बुद्ध आजीवन सभी नगरों में घूम-घूम कर अपने विचारों को प्रसारित करते रहे। भ्रमण के दौरान जब वे पावा पहुँचे, वहाँ उन्हे अतिसार रोग हो गया था। तद्पश्चात कुशीनगर गये जहाँ 483 ई.पू. में बैशाख पूर्णिमा के दिन अमृत आत्मा मानव शरीर को छोड़ ब्रह्माण्ड में लीन हो गई। इस घटना को "महा-निर्वाण' कहा जाता है।

महात्मा बुद्ध के उपदेश आज भी देश-विदेश में जनमानस का मार्ग दर्शन कर रहे हैं। भगवान बुद्ध प्राणी हिंसा के सख्त विरोधी थे। उनका कहना था कि- "जैसे मैं हूँ, वैसे ही वे हैं, और 'जैसे वे हैं, वैसा ही मैं हूँ। इस प्रकार सबको अपने जैसा समझकर न किसी को मारें, न मारने को प्रेरित करें।" भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की।

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