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बौद्ध दर्शन में योग का स्वरूप | Bodh Darshan Mein Yog | बौद्ध मत में योग

बौद्ध दर्शन का परिचय

बौद्ध दर्शन को एक नास्तिक दर्शन के रूप में देखा जाता है किन्तु यहाँ भी मोक्ष की मान्यता है अतः इसे भी नास्तिक दर्शन कहना उचित नहीं होगा। बौद्ध दार्शनिक मोक्ष को निर्वाण के नाम से पुकारते हैं। इस निर्वाण की प्राप्ति के लिये इसमें साधना मार्ग का भी वर्णन किया गया है। बौद्ध दर्शन के अनुसार जीवन दु:खमय है। महात्मा बुद्ध कहते हैं 'सर्वम् दुःखम्' अर्थात् सभी कुछ दु:खमय है। यदि हम विचार कर देखें तो संसार की प्रत्येक वस्तु चाहे वह कितना ही प्रिय दिखाई दे उसके मूल में दु:ख ही है। इस दु:ख को दूर करने के लिये महात्मा बुद्ध ने निश्चित साधना पद्धति का निर्माण किया। जिसमें योगांगों को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है।

बौद्ध दर्शन में पुनर्जन्म की मान्यता है इस कारण से कर्म को माना है। मोक्ष हो जाने पर बौद्ध दर्शन में भी जन्म-मरण के चक्र समाप्ति को माना है। बौद्ध मत में माना गया है कि मानसिक साधना के लिए शरीर का स्वरूप जानना बहुत आवश्यक है क्योंकि स्वरूप शरीर से ज्ञान की प्राप्ति संभव है। महात्मा बुद्ध ने घर बार छोड़कर कठिन तप किया। तप के पश्चात् उन्होंने समाधि की अवस्था मेंविशुद्ध ज्ञान को प्राप्त किया। महात्मा बुद्ध कठिन तपस्या को जिसमें शरीर को कष्ट दिया जाता है उसके विरोधी थे। उन्होंने मध्यम मार्ग का अनुसरण कियादर्शन के चारों विषयों दु:ख, दु:ख का कारण, दु:ख नाश एवं दु:ख नाश के उपाय इन सभी पर विचार करते हुए महात्मा बुद्ध ने कहा इनके सदा ध्यान रखते हुए दु:ख निवारण का प्रयास रहना चाहिए।

बौद्ध दर्शन में योग का स्वरूप

जानिए बौद्ध दर्शन का सम्पूर्ण परिचय

बौद्ध दर्शन में योग

जिस प्रकार महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रन्थ पातंजल योगसूत्र में अष्टांगयोग के अंतर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये पांच यम माने हैं। और शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान पांच नियम बताये हैं। ठीक उसी प्रकार बौद्धों में भी यम और नियम का पालन अनिवार्य बताया गया है। भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों के लिए अग्रलिखित नियमों का पालन करना आवश्यक माना है।

बौद्ध दर्शन के अनुसार नियम -

बौद्ध दर्शन के अनुसार ये नियम हैं- अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, सत्य, धर्म में श्रद्धा, दोपहर के बाद का भोजन निषेध, सुख-प्रद शैय्या तथा आसन का परित्याग, विलास से विरक्ति, सुगंधित द्रव्यों का निषेध तथा स्वर्ण या चांदी आदि मूल्यवान वस्तुओं को अस्वीकार करना। ये सब नियम मोक्ष मार्ग के साधक के लिए अनिवार्य हैं।

पातंजल योग के अष्टांग योग की भांति बौद्ध साधना में भी निर्वाण के लिये अष्टांग मार्ग का वर्णन किया गया है। बौद्ध साधना के लिये आठ मार्ग निम्नलिखित हैं-

बौद्ध दर्शन के अष्टांग मार्ग -

1. सम्यक दृष्टि

2. सम्यक संकल्प

3. सम्यक वाक्

4. सम्यक कर्म

5. सम्यक आजीव

6. सम्यक व्यायाम

7. सम्यक स्मृति

8. सम्यक समाधि

1. सम्यक दृष्टि- दु:ख, दु:ख का कारण, दु:ख नाश, दु:ख नाश क उपाय इन चारों आर्य सत्यों का ज्ञान चित्त में बने रहना 'सम्यक दृष्टि' है।

2. सम्यक संकल्प- राग, द्वेष, हिंसा आदि दुर्गुणों और सांसारिक विषयों का परित्याग करने का दृढ़ निश्चय कर लेना ही ‘सम्यक संकल्प’ है।

3. सम्यक वाक्- मिथ्या, अनुचित तथा दुर्वचनों का परित्याग करना, जैसा देखा, सुना या अनुभव किया उसको वैसा ही वाणी से बोलना वैसा आचरण करना, सत्य वचनों की रक्षा करना, ‘सम्यक वाक्’ कहलाता है।

4. सम्यक कर्म- हिंसा, पर द्रव्य का अपहरण, वासना कोटि की इच्छा का परित्याग करके शुभ कर्म करना ‘सम्यक कर्म’ कहलाता है।

5. सम्यक आजीव- न्यायपूर्वक तथा धर्म के अनुसार बिना किसी दूसरे को हानि पहुँचाये अपनी जीविका के साधन जुटाना ‘सम्यक आजीव’ कहलाता है।

6. सम्यक व्यायाम- बुराइयों को नष्ट कर अच्छे कर्मों के लिए सदैव उद्यत रहना ‘सम्यक व्यायाम’ है।

7. सम्यक स्मृति- काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुणों को हटाकर चित्त की शुद्धि करना, सदैव आत्मचिन्तन में रत रहना ‘सम्यक स्मृति’ है।

8. सम्यक समाधि- चित् को एकाग्र कर राग - द्वेष आदि सांसारिक बन्धनों से अपने आपको मुक्त रखना ‘सम्यक समाधि’ है।

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महात्मा बुद्ध कहते हैं कि साधक को इन आठों अंगों का पालन करना आवश्यक है। इनके पालन करने से अंत:करण की शुद्धि होती है, और ज्ञान का उदय होता है। बौद्ध मत में योग के मुख्य अंग आसन का भी विधान दिया गया है। साधना के लिये किसी स्थिर आसन में बैठना अनिवार्य माना गया है। महात्मा बुद्ध की मूर्ति प्रायः पद्मासन में ही मिलती है। प्राणायाम का उपदेश भी महात्मा बुद्ध ने दिया है।

बौद्ध दर्शन में योग

बौद्ध दर्शन के अनुसार त्रिरत्न -

बौद्ध साधना मुख्यतः तीन वर्गों में वर्गीकृत है जिन्हें त्रिरत्न के नाम से जाना जाता है। बौद्ध साधना के अनुसार ये त्रिरत्न इस प्रकार हैं-

1. शील

2. समाधि

3. प्रज्ञा

1. शील- अर्थात् शारीरिक मानसिक शुद्धि। यह साधना का पहला अंग हैं जिनका पालन करने पर हर साधक साधना मार्ग में आगे बढ़ सकता है।

2. समाधि- अर्थात् चित्त की एकाग्रता। पूर्व के साधनों के अभ्यास से चित्त राग द्वेष से रहित होकर शुद्ध हो जाता है और आसानी से एकाग्र हो जाता है।

3. प्रज्ञा- अर्थात् परम ज्ञान। यह परम ज्ञान भी शील और समाधि की पूर्णता से उदित होता है जिसकी प्राप्ति से दु:ख का आत्यंतिक नाश संभव है।

ध्यान योग साधना का मुख्य अंश है। महात्मा बुद्ध के अनुसार भी एकांत में ध्यान करना ही आध्यात्मिक शांति एवं अनासक्ति प्राप्त करने का एक मात्र साधन है। बौद्धों में पांच प्रकार के ध्यानों का वर्णन किया गया है। जो योग दर्शन की सम्प्रज्ञात समाधि के चारों अंगों के समान है। इन चारों में भी योग की भांति कुछ विघ्न वर्णित किये गये हैं। जिन्हें दूर करने का साधक को प्रयत्न करना चाहिये।

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जिस प्रकार योग दर्शन में विभूतियों का मोक्ष मार्ग का बाधक माना गया है, उसी प्रकार महात्मा बुद्ध भी अपने शिष्यों को चमत्कार प्रदर्शन से मना किया करते थे। क्योंकि अलौकिक प्रदर्शन से साधक लक्ष्य से भटक जाते हैं और उसे निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो पाती है। बुद्ध के अनुसार मोक्ष चाहने वाले को सदैव चित्त शुद्धि और एकाग्रता को प्राप्त करने के लिये प्रयास रत रहना चाहिये।

अतः यह स्पष्ट होता है कि बौद्ध धर्म में साधना का विशेष स्थान है भले ही उसका स्वरूप दूसरा हो। भगवान बुद्ध ने संसार को दुःखमय माना तथा उसके निरोध को दुःख से मुक्त होने को निर्वाण यानि मुक्ति की संज्ञा दी। दुःख का प्रमुख कारण अविद्या है जिससे लोभ, मोह, तृष्णा आदि पैदा होती है जो सांसारिक दुःख यां बंधन का प्रमुख कारण है एवं ज्ञान की प्राप्ति एवं मुक्ति में बाधक है। यौगिक ग्रन्थों की भांति बौद्ध दर्शन भी मोक्ष, मुक्ति अथवा कैवल्य को मानव जीवन का सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य मानता है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि बौद्ध मत योग दर्शन से बहुत अधिक समानता रखता है। यह कहा जाता है कि बौद्ध साधना में योग के सभी अंगों का समावेश किया गया है।

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