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जैन दर्शन में योग का स्वरूप | Jain Darshan Mein Yog | Jain Darshan Mein Yoga Ka Swaroop | जैन मत में योग

जैन दर्शन में योग

जैन दर्शन की मान्यता एक नास्तिक दर्शन के रूप में है किन्तु विचार करने पर यह मान्यता उचित प्रतीत नहीं होती। क्योंकि जैन दर्शन भी मोक्ष की मान्यता रखता है और अपने सिद्ध तीर्थंकरों को ईश्वर की संज्ञा देता है। मोक्ष प्राप्ति के लिये जैन दर्शन में एक निश्चित साधना पद्धति से बहुत अधिक साम्यता रखती है। योग शब्द 'युजधातु से बना है जिसका अर्थ है समाधि और जोड़ना। जैन आचार्यों ने इसी अर्थ में योग को स्वीकार किया है। योग की परिभाषा देते हुए जैन आचार्य 'यशोविजय' अपने ग्रंथ 'द्वात्रिशिका' में कहते हैं-

मोक्षेण योजनादेव योगो ह्यत्र निरूच्यते।

यही बात श्रीहरिचन्द्र सूरि' अपने ग्रंथयोगिबिंशका' में इस प्रकार कहते हैं-

मुक्खेण जोयणाओ जोगो

अर्थात् जिन-जिन साधनों से आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति होती है, उन सभी साधनों को योग कहते हैं। इसी प्रकार पातंजल योगसूत्र में महर्षि पतंजलि कहते हैं-

योगश्चित्तवृत्ति निरोधः

अर्थात् चित्त की वृत्तियों का सर्वथा निरोध हो जाना ही योग है। इसी को योग के भेद द्वात्रिशिका में इस प्रकार कहा है-

यतः समितिगुप्तीनां प्रपंचो योग उत्तमः।

अर्थात्, मन, वचन, शरीर आदि को संयत करने वाला धर्म व्यापार ही योग है। क्योंकि जिस धर्म या साधनों से हमारा शरीर और मन वश में होता है वे ही साधन आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ने वाले हैं। इसलिये इन साधनों को योग कहा गया है।

जैन-दर्शन-में-योग-का-स्वरूप

जैन दर्शन में तीन प्रकार का योग बताया गया है। जिन्हें जैनियों के त्रिरत्न के नाम से जाना जाता है, ये त्रिरत्न हैं-

जैन दर्शन के अनुसार त्रिरत्न -

1. सम्यक दर्शन

2. सम्यक ज्ञान

3. सम्यक चरित्र।

इन तीनों को मोक्ष प्राप्ति का कारण होने से योग माना गया है। किसी भी कार्य को करने के लिये या किसी भी वस्तु की प्राप्ति के लिये उन पर अटल श्रद्धा का होना अनिवार्य है। इसलिये योग के लिये जो-जो आवश्यक है उन पर तथा जो योगी हुए हैं, उन पर परीक्षा पूर्व श्रद्धा को जैन दर्शन में 'सम्यक दर्शन' नाम दिया गया है।

तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग दर्शनम्

केवल विश्वास श्रद्धा से ही कुछ नहीं होता, विश्वास के साथ-साथ जिस मार्ग पर हम चलते हैं उसके सभी साधनों को, सभी रहस्यों को स्वत: से जानना भी आवश्यक है। इसी को जैन दर्शन में 'सम्यक ज्ञान' कहते हैं।

श्रद्धा और ज्ञान तब तक फलीभूत नहीं हो सकते जब तक साधक का चरित्र शुद्ध नहीं होता और जब तक मन में राग, द्वेष, मोह आदि दुर्गुण बने रहते हैं तब तक अध्यात्म के मार्ग पर चलना बहुत कठिन है। साधक का आचार-विचार व्यवहार सभी शुद्ध होना चाहिए। इसी को जैन दर्शन में 'सम्यक चरित्र' का नाम दिया है बिना चरित्र के ज्ञान और श्रद्धा दोनों निरर्थक हैं। महर्षि पतंजलि ने भी इसलिये अपनी साधना पद्धति में सर्वप्रथम यम और नियम को स्थान प्रदान किया है। यम और नियम से चरित्र की शुद्धि होती है।

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इस योग साधना के लिये जैन मत से 'अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, तथा अपरिग्रह' नामक पांचों व्रतों का वर्णन किया गया है। जैन मत में इन पांचों को महाव्रत का नाम दिया गया है। ये पांचों व्रत योग दर्शन के अष्टांग साधना के प्रथम अंग यम के रूप में वर्णित किये गये हैं। इनके अतिरिक्त जैन दर्शन में दस धर्मों का पालन भी बताया गया है। ये दस धर्म हैं-

जैन दर्शन के अनुसार दस धर्म -

1. क्षमा

2. मृदुला

3. सरलता

4. शौच

5. सत्य

6. संयम

7. त्याग

8. औदासिन्य

9. ब्रह्मचर्य

10. अहिंसा

जैन दर्शन कहता है कि इनके पालन करने से कर्म का प्रवेश रुक जाता है। इस कर्म को भी जैन दर्शन से भावी जन्म का कारण माना गया है। इन धर्मों के पालन से कर्म भावी जन्म का कारण नहीं बनता है। इसलिये इनको योग साधना के रूप में मान्यता दी गई है।

जैन-दर्शन-में-योग-का-स्वरूप

जैन मत मे 'तप' के ऊपर विशेष बल दिया है। तप को चित्त शुद्धि और समाधि का साधन माना गया है। इनके यहाँ मान्यता है कि 'निर्जरा' प्राप्ति के लिए कठिन तप करना पड़ता है। उनके द्वारा योगाभ्यास करने के लिए सर्वप्रथम मन को संयमित करना अनिवार्य होता हैं, क्योंकि मन के कारण ही इन्द्रियों की चंचलता होती है, जो एकोन्मुखता (एकाग्रता) तथा आत्मज्ञान में बाधक बनती है। इसलिए मन को कठिन तपस्या के द्वारा ही वश में किया जाता है।

साधना के मुख्य अंग ध्यान की जो परिभाषा योग दर्शन में दी गई है, वही परिभाषा जैन मत में भी स्वीकार की गई है। दोनों प्रकार में 'ध्याता' (ध्यान करने वाला) ध्यान और ध्येय (लक्ष्य) ये तीन अंग ध्यान के माने गए हैं। जैन दर्शन में आर्त, रौद्र, धर्म तथा शुक्ल ये चार ध्यान के भेद माने गए है। इनमें प्रथम के दो ध्यान की अवस्था में तमोगुण बना रहता है। यह साधक की प्रारंभिक अवस्था होती है। इनको योग के उपयुक्त नहीं माना गया। धर्म और शुक्ल ध्यान की योगोपयोगी है। इनमें भी शुक्ल ध्यान के अभ्यास से अनेक दु:खों का संग्रह क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है इस विषय में इनके "समाधि शतक, ध्यान शतक, ध्यान विचार, ध्यान दीपिका आवश्यक नियुक्ति, अध्यात्म 'कल्प द्रुम' टीका प्रभूति" जैसे अनेक प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।

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योग दर्शन में चित्त की पांच अवस्थाएँ मानी गयी हैं। जैन दर्शन में भी विक्षिप्त, यातायात, संलिष्ठ और सुलीन यह चार अवस्थाएं चित्त की मानी है। जिस प्रकार योग में मुख्य रूप से अष्ट सिद्धियों का वर्णन प्राप्त होता है, वैसे ही जैन मत में आचार्य हरिभद्र सूरि ने योग की आठ दृष्टियाँ बतायी हैं।

मित्रा तारा बला दीप्ता स्थिरा कान्ता प्रथा परा, नामानि योगदृष्टिनां

जैन दर्शन में प्राणायाम का वर्णन करते हुए कहा है कि यह हठयोग का अंग है जो बलात किया जाता है। अतः इसे नहीं करना चाहिए। इसका अभ्यास केवल उन्हीं लोगों को करना चाहिए जिसकी इन्हें आवश्यकता है, जो इसे युक्ति तरीके से कर सके। सबके लिए यह आवश्यक नहीं है।

योगदर्शन की भाँति जैन दर्शन में भी जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति दोनों प्रकार की युक्ति मानी गई है। जैन मत में भी माना गया है कि विदेह मुक्ति के पश्चात् आत्मा फिर कभी संसार में लौटकर नहीं आती। इस प्रकार हम देखते हैं कि योग और जैन दर्शन दोनों की साधना पद्धतियाँ लगभग समान ही हैं। यह दोनों प्रकृति को अनादि मानते है और संसार की निरन्तरता में विश्वास रखते हैं। कुछ ही मान्यताओं में इनका अन्तर हो। जैनमत में दुःखों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए योग साधना पर अत्यन्त बल दिया गया है। क्लेशों को मूल मानते हैं।

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