सत्यानन्द सरस्वती का जीवन परिचय
परमहंस स्वामी सत्यानन्द सरस्वती का जन्म अल्मोडा के निकट हिमालय की तराई में स्थित एक गांव में हुआ था। उनमें बचपन से ही विलक्षण प्रतिभाएं परिलक्षित होती थीं तथा छः वर्ष की उम्र में ही प्रथम आध्यात्मिक अनुभूति हुई थी। हिमालय के उच्चतर क्षेत्रों की ओर यात्रा करने वाले उन मनीषियों और साधुओं का आर्शीवाद स्वामी सत्यानन्द सरस्वती को प्राप्त होता रहा जो उनके घर के रास्ते से गुजरते थे। उन मनीषियों और साधुओं ने उन्हें आध्यात्मिक अनुभवों की ऊंचाइयों तक पहुंचने के लिए प्रेरित किया और इससे उनमें तीव्र वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ। इतनी कम अवस्था में ऐसा होना एक असाधारण बात थी।
स्वामी ने उन्नीस वर्ष की अवस्था में अपना घर एवं परिवार छोड़ दिया तथा गुरू की खोज में निकल पड़े। कुछ समय बाद वे ऋषिकेश पहुंचे तथा वहां उन्हें अपने आध्यात्मिक गुरू स्वामी शिवानन्द सरस्वती के दर्शन हुए। वे गुरू आश्रम में बारह वर्षों तक रहे। वहां वे सदैव कर्मयोग में रत रहते थे। इससे स्वामी शिवानन्द जी की यह धारणा ही बन गई थी कि वे अकेले चार व्यक्तियों का कार्य करते हैं। स्वामी जी प्रातः काल से लेकर देर रात्रि तक कर्मयोग में व्यस्त रहते थे। वे आश्रम की सफाई से लेकर व्यवस्था तक के सभी प्रकार के कार्यों का सम्पादन करते थे। गुरू-सेवा से उन्हें अत्यंत अनुराग था तथा उसमें उन्हें अपार आनन्द मिलता था।
वे प्रखर बुद्धि से युक्त थे। स्वामी शिवानन्द जी ने बहुमुखी प्रतिभाशाली की संज्ञा दी थी। तथापि स्वामी सत्यानन्द जी का ज्ञान आश्रम में दिये जाने वाले उपदेशों या पुस्तकों के अध्ययन पर आधारित नहीं था। उन्होंने अपने गुरु के इस निर्देश का आस्थापूर्वक पालन किया, "कठोर श्रम करो जिससे तुम पवित्र हो जाओगे। आत्मज्ञान के लिए तुम्हें प्रयास नहीं करना है। आत्मज्ञान स्वयं तुम्हारे अन्दर से प्रकट होगा।" और अन्तत: ऐसा ही हुआ। आध्यात्मिक जीवन के अनेक रहस्य उनके सामने प्रकट हुए। इस प्रबोधन के फलस्वरूप वे तब ही योग, तन्त्र, कुंडलिनी, वेदान्त एवं सांख्य के महान विशेषज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हो गये।
स्वामी सत्यानन्द जी बारह वर्षों तक गुरू के सान्निध्य में रहे।
तदोपरान्त उनका परिव्राजक जीवन प्रारंभ हुआ। एक परिव्राजक के रूप में उन्होंने आठ
वर्षों तक संपूर्ण भारत, अफगानिस्तान, बर्मा, नेपाल एवं श्रीलंका का भ्रमण किया। इस अवधि में उन्हें अनेक योगियों
तथा संतों से मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ। समय-समय पर उन्होंने एकान्तवास भी किया
तथा इसका उपयोग यौगिक तकनीकों को प्रतिपादित एवं परिष्कृत करने में किया ताकि
मानवता को कष्टों से त्राण मिल सके।
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सन् 1963 में उनके सामने उनका लक्ष्य स्पष्ट हो गया तथा उन्होंने "अन्तर्राष्ट्रीय योग मित्र मण्डल" की स्थापना की। चूंकि अपने मुंगेर-प्रवास की अवधि में उन्हें लक्ष्य की अनुभूति हुई, अत: वे वहीं गंगा के किनारे निवास करने लगे। आध्यात्मिक मार्ग पर लोगों का पथ-प्रदर्शन करने हेतु उन्होंने सन् 1964 में मुंगेर में ही बिहार योग विद्यालय की स्थापना की। शीघ्र ही संपूर्ण भारत एवं विदेशों से जिज्ञासु एवं साधक इस विद्यालय में आने लगे। स्वामी सत्यानन्द जी की शिक्षा तेजी से संपूर्ण विश्व में फैलने लगी।
सन् 1968 में उन्होंने व्यापक रूप से विश्व-यात्रा की। उनका उद्देश्य सभी
जातियों, मतों, धर्मों एवं राष्ट्रीयता के लोगों के बीच प्राचीन यौगिक अभ्यासों को
लोकप्रिय बनाना था। उसके बाद स्वामी सत्यानन्द सरस्वती विश्व-विख्यात हो गये। ये
सर्वत्र योग एवं तंत्र के अग्रगण्य प्रतिपादक माने जाते हैं। वे विश्व के विभिन्न
भागों में रहने वाले असंख्य आध्यात्मिक साधकों के मार्गदर्शक तथा अनेक योगाश्रमों
एवं योग-केन्द्रों के प्रेरणा-स्रोत हैं।
इस दौरान स्वामी जी ने योग विद्या पर आधारित लगभग 80 ग्रंथों की रचना की। जिनमें योग-तंत्र एवं क्रिया तथा आसन-प्राणायाम मुद्रा-बंध आदि काफी चर्चित हैं। स्वामी जी ने योग-निद्रा पर कई वैज्ञानिक अध्ययन कर इसे पुनर्स्थापित किया। सन् 1983 में स्वामी जी ने स्वामी निरंजनानन्द सरस्वती को अपना उत्तराधिकारी तथा बिहार योग विद्यालय एवं उससे सम्बद्ध योग-केन्द्रों का अध्यक्ष नियुक्त किया। सन् 1984 में उन्होंने "शिवानन्द मठ" की स्थापना की। यह एक दातव्य सामाजिक संस्था है। उसी वर्ष स्वामीजी ने यौगिक तकनीकों पर वैज्ञानिक शोध करने के उद्देश्य से "योग शोध संस्थान" की स्थापना की। यद्यपि ये दोनों ही स्वतंत्र संस्थायें हैं, किन्तु वे बिहार योग विद्यालय से समन्वय रखते हुए कार्य करती हैं।
सन् 1988 में स्वामी सत्यानन्द जी ने मुंगेर छोड़कर एक परिव्राजक सन्यासी के
रूप में भारत के सिद्ध तीर्थों की तीर्थ-यात्रा प्रारंभ की। तदोपरान्त उन्होंने
क्षेत्र सन्यास ले लिया एवं अपनी संस्थाओं तथा पूर्व की सारी व्यवस्थाओं का
परित्याग कर दिया। अब स्वामी जी ने एक परमहंस सन्यासी की जीवन पद्धति अपना ली और
अब वे सिर्फ अपने अनुयायियों एवं संस्थाओं के लिए ही नहीं बल्कि एक विश्वव्यापी
दृष्टिकोण से साधनारत हो गए।
इस प्रकार देवघर के पास रिखिया नामक स्थान पर एकान्त साधना के
उद्देश्य से डेरा जमाया। लेकिन इनके शिष्यों अनुयायियों ने यहाँ भी इन्हें घेर
लिया और आस-पास की सारी जमीन खरीदकर उन्हें दान कर दी, स्वामी पहले ही परमहंस की उपाधि
प्राप्त कर चुके थे अत: आने वाले शिष्यों - भक्तों के दान को आस-पास के गरीब
किसानों, एवं श्रद्धालुओं को दान कर देते। यहीं उन्होंने पंचाग्नि जैसी कठोर
साधनाएं पूर्ण की तत्पश्चात कठोर व्रत त्याग कर भक्ति योग को प्रधानता दी।
अपने भक्तों से साधना के दौरान नहीं मिलते पर साधना समाप्त होने पर दिव्य-अलौकिक तेज लिए कीर्तन-भजन करते खूब आनंदित होते। वर्ष 2009 में उन्होंने अपने मुख्य दो शिष्यों को बताकर महासमाधि ले ली। स्वामी जी का जीवन योग विद्या को समर्पित था तथा उनकी बताई साधनाएँ एवं उनकी लिखी पुस्तकें अनुपम एवं अद्वितीय हैं।
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