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स्वामी शिवानन्द सरस्वती का जीवन परिचय | Biography of Swami Sivananda | स्वामी शिवानन्द

नाम- स्वामी शिवानन्द सरस्वती
बचपन का नाम- कुप्पू स्वामी
जन्म स्थान- दक्षिण भारत
जन्म समय- दिसम्बर  सन् 1887
पिता का नाम- पी.एस. गहवर
माता का नाम- पार्वती अम्मा

स्वामी शिवानन्द का जन्म दक्षिण भारत में ताम्रपर्णी नदी के किनारे पट्टामड़ाई नामक गांव में 8 दिसम्बर 1887 ई. को हुआ था। इनके पिता श्री पी.एस. गहवर तहसीलदार एक थे। वे शिव के परम भक्त थे। इनकी माता श्रीमती पार्वती अम्मा ईश्वर में श्रद्धा रखने वाली एक आध्यात्मिक महिला थी। इनके माता-पिता इनके जन्म से बड़े खुश हुए। उन्होंने इनका नाम कुप्पू-स्वामी रखा। बालक कुप्पू स्वामी बहुत ही कुशाग्रबुद्धि और दयालु था। बचपन से ही इनके मन में करुणा और दया कूट-कूट कर भरी हुई थी। अपनी माता से खाने की चीजें लेकर दरवाजे पर आये कुत्तों, बिल्लियों, गायों, पक्षियों आदि को खिलाते रहते थे।

माता-पिता से आध्यात्मिक विचारों का कुप्पू-स्वामी पर विशेष प्रभाव पडा। जब इनके पिता शिव पूजा के लिए जाते तो ये फूल आदि सामग्री बड़े प्यार से लाकर देते थे इन्होंने वहीं पर स्थित राजकीय हाईस्कूल से शिक्षा प्राप्त की। कुप्पू स्वामी अपनी कक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करते थे। इनकी स्मृति बहुत तेज थी। जो कुछ याद करते वह सदैव इनके चित्त में बना रहता था।

Swami-Sivananda-Saraswati

हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के पश्चात् इन्होंने त्रिचनापल्ली में एस.पी.जी. गहन विद्यालय में प्रवेश लिया। कॉलेज में शिक्षण के साथ-साथ ये वाद-विवाद प्रतियोगिता और नाटकों में भाग लेते रहते थे। 1905 ई. में इन्होंने शेक्सपीयर के A Mid Summer Nights Dream नामक नाटक में अभिनय किया कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद कुप्पू स्वामी तंजारे में मेडिकल कॉलेज में पहुंच गये, और वहां चिकित्साशास्त्र के अध्ययन में रत हो गये। वहां भी इनकी कुशाग्र बुद्धि सीखने की लगन और सेवाभाव से सभी चकित थे।

छुट्टियों में जब सब विद्यार्थी अपने-अपने घरों को जाते तब वे वही मेडिकल कॉलेज में रहकर चिकित्सालय में भर्ती रोगियों की सेवा करते और डॉक्टर्स की सहायता करते। शिक्षा काल में ही ये ऑपरेशन थिएटर में जाकर शल चिकित्सा आदि में भाग लेते। इनकी रुचि और ज्ञान को देखकर चिकित्सकों ने इनसे कहा कि जितना अंतिम वर्ष में छात्र नहीं जानते इतना ज्ञान तुमने अभी से प्राप्त कर लिया है।

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यहां से एम.बी.सी.एम. की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात् कुप्पू स्वामी ने भी प्रैक्टिस प्रारंभ कर दी। रोगियों की चिकित्सा के साथ-साथ इन्होंने चिकित्सा से संबंधित एक पत्रिका भी निकालना प्रारंभ किया। यह पत्रिका ये नि:शुल्क बांटते थे और इसे जनहित में अपना योगदान समझते थे। 1913 ई. में मलाया पहुंच गये। वहां जाने के लिए इन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। इनके परिवार वालों ने इन्हें वहां जाने की आज्ञा नहीं दे रहे थे। क्योंकि ये ब्राह्मण परिवार के थे और उस समय समुद्र पार कर विदेश जाना पाप समझा जाता था। किन्तु ये अपने निश्चय पर अडिग थे और ये मलाया पहुंच गये। वहां इन्होंने एक राजकीय अस्पताल में नौकरी प्राप्त कर ली। यहां भी इन्होंने अपने परिश्रम और सेवा भाव से शीघ्र ही ख्याति प्राप्त कर ली।

स्वामी शिवानन्द सभी के साथ बड़े प्यार से बोलते, बीमारों के प्रति इनके मन में दया का भाव सदेव बना रहता। अस्पताल के बाद कुछ समय निकालकर ये घर पर भी गरीब और असहाय लोगों को चिकित्सा करते। जिससे वहां की जनता में इनके प्रति सम्मान के भावों का उदय हुआ। कई बार तो ये पूरी-पूरी रात जागकर मरीजों की सेवा करते रहते। गरीब व्यक्तियों से ये किसी प्रकार शुल्क नहीं लेते थे बल्कि अपने पास से औषधियों के साथ-साथ उचित आहार के लिए उन्हें कुछ पैसे देते।

इतना सधा जीवन होते हुए भी कुप्पू स्वामी साधु सन्यासियों एवं महापुरुषों का सत्संग करते रहते। उनके प्रति इनके हृदय में सदैव सम्मान की भावना रही। एक बार एक साधु उनके यहाँ ठहरे हुए थे। उन्होंने इन्हें एक आध्यात्मिक पुस्तक दी जिसे इन्हें शुरू से आखिर तक पढ़ा। उस पुस्तक को पढ़ने से इनके मन में वैराग्य भाव उदय हुआ क्योंकि ये पहले से ही श्री शंकराचार्य, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी विवेकानन्द आदि का साहित्य पढ़ते रहते थे। प्रतिदिन पूजा करते थे। इस प्रकार इनका वैराग्य दृढ़ता को प्राप्त हुआ। साथ ही साथ योग साधना भी करते रहते थे। कुछ समय पश्चात् इनके मन में सब कुछ छोड़कर साधना करने का भाव उदय हुआ और ये अपनी नौकरी छोड़कर 1922 ई. में मलाया से वापस भारत आ गये। यहां आने के पश्चात् अपना सामान घर पहुंचाकर घर के अन्दर बिना प्रवेश किये ही वापस हो गये और तीर्थ स्थानों के भ्रमण के लिए निकल पड़े।

इस प्रकार भ्रमण करते हुए ये 1924 ई. में ऋषिकेश पहुंच गये और वहां स्वामी विश्वानन्द सरस्वती के सम्पर्क में आये। स्वामी विश्वानन्द सरस्वती कैलाशाश्रम में महन्त थे। इन्हीं को कुप्पू स्वामी ने अपना गुरू बनाया और सन्यास दीक्षा लेने की इच्छा इनके समक्ष प्रकट की। स्वामी विश्वानन्द जी इन्हें सन्यास की दीक्षा दी और इनका नाम कुप्पू स्वामी से बदलकर स्वामी शिवानन्द सरस्वती रखा। तत्पश्चात् स्वामी शिवानन्द स्वर्गाश्रम में रहकर साधना करने लगे। यहां ये विभिन्न प्रकार की साधना करने लगे जैसे वर्षा, धूप में बैठे रहना, मौन धारण, उपवास आदि तपस्या रूपी क्रियायें करते रहे। कई कई दिन तक भूखे रहकर गंगा जल पीकर खड़े होकर मंत्र जप करना इनकी दिनचर्या थी। ये प्रतिदिन 12-12 घंटे ध्यान करते। साधना के साथ-साथ साधुओं को कुटिया में जाकर उनकी नि:शुल्क चिकित्सा करते और उन्हें अपने पास से औषधियां देते।

इनके मन में एक विचार आया कि गरीब जनता चिकित्सा के लिए एक स्थायी अस्पताल होना चाहिए तो इन्होंने मलाया बैंक से अपना जमा रुपया मंगाकर लक्ष्मण झूला के पास 1927 में धर्मार्थ चिकित्सालय खोला। यह सब सेवा कार्य करते हुए भी ये निरन्तर योग साधना में आगे बढ़ते रहे। स्वाध्याय इनकी नियमित दिनचर्या का अंग रहा और इन्होंने निर्विकल्प समाधि की अवस्था को प्राप्त किया। अब इन्होंने भारत भर में भ्रमण कर अपने सिद्धान्तों का प्रचार प्रसार करना प्रारंभ किया। धीरे-धीरे इनके शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी। ये जहां भी जाते इनके तेजस्वी व्यक्तित्व से सभी प्रभावित होते और इनका शिष्यत्व ग्रहण करते।

सन 1936 ई. में इन्होंने ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ Divine Life Society नामक संस्था की स्थापना की। इसके माध्यम से इन्होंने वैदिक संस्कृति का प्रचार किया। अपने साहित्य को सुगमतापूर्वक जनता तक पहुंचाने के लिए इन्होंने अपने ही आश्रम में एक प्रिटिंग प्रेस की स्थापना की। जिससे प्रकाशित साहित्य लोगों को नि:शुल्क बांटा जाता था। इनके शिष्यों में देशी और विदेशी सभी थे।

स्वामी शिवानन्द भक्ति, ज्ञान और कर्म योग सभी साधनाओं में विश्वास रखते थे और इनसे संबंधित विचारों को सरल भाषा में जन-जन तब पहुंचाने का कार्य करते थे। वे जीवन भर दीन-दुखियों की सेवा और धर्म प्रचार के कार्य में लगे रहे। जो भी व्यक्ति उनके सम्पर्क में आया वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। ऋषिकेश और आस-पास के गांवों में निवास करने वाले लोग उनके प्रति बड़ा सम्मान और प्रेम रखते थे। जीवन के अन्त में वे शरीर की कमजोरी और बीमारी के कारण आश्रम में रहकर ही सम्पूर्ण कार्यों का निरीक्षण किया करते थे। वे यह चाहते रहे कि 'दिव्य जीवन संघ' का अत्यधिक विकास हो जिससे अधिक से अधिक लोग इसका लाभ उठा सके। इस प्रकार जन सेवा करते हुए 14 जुलाई 1963 को उन्होंने महासमाधि ली।

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