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महर्षि अरविन्द का जीवन परिचय | Biography of Sri Aurobindo | श्री अरविन्द

नाम- महर्षि अरविन्द
जन्म स्थान- कोलकाता
जन्म समय- 15 अगस्त सन् 1872
पिता का नाम- डॉ. कृष्णधन घोष
माता का नाम - स्वर्णलता देवी
धर्मपत्नी का नाम- मृणालिनी देवी

महान योगी श्री अरविन्द का जन्म कलकत्ता (अब कोलकाता) में 15 अगस्त सन् 1872 को हुआ था। श्री अरविन्द के पिता का नाम डॉ. कृष्णधन घोष था जो एक सिविल सर्जन थे। कृष्णधन घोष भारतीय संस्कृति को पसंद नहीं करते थे इसलिए इन्होंने अपने बच्चों को अंग्रेजी वातावरण में ही रखा। श्री अरविन्द की माता का नाम स्वर्णलता देवी था। 12 वर्ष तक दार्जिलिंग में एक अंग्रेजी स्कूल में पढ़कर 1889 में श्री अरविन्द इंग्लैड चले गये थे। वहां पर वे अंग्रेजी वातावरण में ही रखे गये। उनके पिता का आदेश था कि उनके बच्चे किसी भारतीय से मिलने न पाये।

श्री अरविंद बहुत ही प्रतिभाशाली छात्र रहे। वहां पर आई.सी.एस. की परीक्षा में भी बैठे परन्तु वे इसमें सफल न हो सके। 14 वर्ष बाद भारत आकर इन्होंने महाराज बडौदा के यहां नौकरी कर ली। जब वे भारत आये तो उन्हें ऐसा अनुभव हुआ कि एक महान ज्योति उनके हृदय के अन्दर प्रवेश कर गई। भारत का एक दिव्य अध्यात्मिक रूप उनकी आंखों के सामने खड़ा हो गया। जिससे उन्हें जीवन में शक्ति तथा मन को शान्ति मिली और दिव्य अनुभूति हुई उस संस्कृति को जानना चाहिए ऐसी जिज्ञासा हुई। अब उनके मन में आध्यात्मवाद के लिए जिज्ञासा उत्पन्न हो गई।

Biography-of-Sri-Aurobindo

अप्रैल सन् 1901 में श्री अरविंद का मृणालिनी देवी नामक सुन्दर कन्या से विवाह हुआ। भारत आने के बाद उन्होंने देश की आजादी के लिए बहुत कार्य किया वे स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी बनकर रहे। देश को गुलामी से मुक्त कराना उनका मुख्य उद्देश्य हो गया था। इतना सब करते हुए भी वे अध्ययन करते रहते थे, और धार्मिक ग्रंथों को पढ़ते रहते थे।

सन् 1903 में श्री अरविंद काशी गये वहां सुलेमान नामक स्थान पर शंकराचार्य नामक पहाड़ी पर इन्हें अनन्त ब्रह्म की अनुभूति हुई। इस घटना से सिद्ध होता है कि श्री अरविन्द का आध्यात्मिक विकास स्वतः ही हुआ था। उनके पूर्वजन्म के संस्कार भी आध्यात्मिकता के ही थे। 1904 में भी वे योगाभ्यास करते रहे। 1908 में बड़ौदा में श्री अरविन्द की भेंट विष्णु भास्कर लेले नामक महाराष्ट्रीयन योगी से हुआ। लेले की शिक्षा के अनुसार श्री अरविन्द अपने मन को शांत करने में सफल हुए और देश काल की सीमा से परे ब्रह्म की अनुभूति हुई।

5 मई सन् 1908 को श्री अरविंद को विद्रोही रूप में अंग्रेजों ने पकड़ लिया और इन्हें अलीपुर जेल में बन्द कर दिया वहां पर वे 6 मई 1909 तक रहे। जेल में रहते हुए भी श्री अरविंद ने अपना समय गीता, उपनिषद आदि आध्यात्मिक ग्रंथों के अध्ययन में बिताया साथ ही ध्यान और योगाभ्यास भी किया। वहीं पर इन्हें ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ। इन्हें समस्त वस्तुओं में ब्रह्म की अनुभूति हुई और सभी वस्तुएं दिव्य रूप में दिखाई दीं। इस अवसर पर श्री अरविंद को एक महान आध्यात्मिक लक्ष्य को पूरा करने की भी आन्तरिक प्रेरणा मिली। जिसे वे भगवत आज्ञा मानते थे।

अलीपुर जेल से छूटने के पश्चात् श्री अरविंद ने अपने जीवन को आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर लगाना प्रारंभ कर दिया, और धीरे-धीरे राजनैतिक जीवन से दूर हटते चले गये। इससे कुछ लोगों ने यह भी कहा कि श्री अरविंद ने राजनैतिक जीवन में आने वाली कठिनाइयों को देखकर राजनैतिक जीवन से सन्यास ले लिया है। किन्तु इन्होंने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया बल्कि कुछ समय पश्चात् उन्होंने राजनैतिक जीवन को पूर्ण रूप से ही छोड़ दिया।

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31 मार्च सन् 1910 को श्री अरविंद कलकत्ता से चन्द्रनगर आये और अंग्रेजों के कुचक्र से बचने के लिए वहां से गुप्त रूप से (1 अप्रैल से 1910 को पांडिचेरी आ गये।) और पूर्ण रूप से योग साधना में संलग्न हो गये। 29 मार्च 1914 को श्री माँ, श्री अरविंद से पहली बार मिली थी। इन दोनों का मिलन एक अनोखा मिलन था। उन्होंने मिलकर उस महान् आध्यात्मिक लक्ष्य के लिए अधिक से अधिक प्रयत्न किया। 1924 तक श्री अरविंद शाम को अन्य साधकों आदि से भी मिलते थे। परन्तु इसके बाद मिलना बन्द कर दिया और एकान्त साधना में चले गये। 24 नवम्बर 1928 को इनका सिद्धि दिवस मनाया जाता है।

23 नवम्बर 1938 को दर्शन से पहले दिन स्नानागार में फिसलने से उनकी दायी टांग टूट गयी थी। पर्याप्त प्रयत्न करने के पश्चात् श्री अरविंद इस योग्य हो पाए थे कि वे वैशाखी के सहारे चल पाते थे। इस दुर्घटना के कुछ दिनों तक उनका कार्य बन्द रहा परन्तु स्थिति सामान्य होने पर श्री अरविंद अपने कार्य में पुन:रत हो गये। अपने साधना कक्ष में ही वे विश्व की होने वाली अनेक घटनाओं पर भी दृष्टिपात किया करते थे। वे जीवन भर परमार्थ के लिए कार्य करते रहे। 5 दिसम्बर 1950 की रात को 1 बजकर 10 मिनट पर अपने महान लक्ष्य के लिए प्रयत्नशील रहते हुए श्री अरविन्द ने उन्होंने समाधि ने ली।

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