श्रीमद्भागवद्गीता का परिचय
श्रीमद्भागवद्गीता में वर्णित लोकसंग्रह विषय गीता के अन्य विषयों की भांति एक मुख्य प्रतिपाद्य
विषय है जो की स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गये उपदेश के रूप में
है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार लोकसंग्रह जानने से पूर्व
हमें गीता का परिचय एवं गीता का महत्व भी जानना आवश्यक है, जो की हम पूर्व में देख चुके हैं। श्रीमद्भगवद्गीता
भगवान वेदव्यास द्वारा रचित अनेकानेक ग्रंथों में से एक ग्रन्थ है, जिसमें अध्यायों की संख्या 18 एवं
श्लोकों की संख्या कुल 700 है।
गीता के अनुसार लोकसंग्रह
श्रीमद्भागवद्गीता में लोक संग्रह का अर्थ है- लोक शिक्षण। उच्चस्तरीय साधक
अपने अन्दर की पूर्णता से तृप्त होकर किसी भी व्यक्ति या किसी भी पदार्थ पर
स्वार्थ रूप में आश्रित नहीं होते। यह सिद्धि इतनी विलक्षण होती है कि इसके बाद
उसके हर कर्म भगवद्कर्म बन जाते हैं और उसका प्रत्येक कर्म लोकसंग्रह के लिए होता
है। श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि-
अर्थात् हे अर्जुन! तू निरन्तर आसक्ति रहित होकर सदा ही कर्तव्य कर्मों को भलीभांति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। आगे भगवान श्रीकृष्ण कर्मयोगियों की व्याख्या करते हुए कहते हैं की-
अर्थात् जनक आदि लोग कर्म द्वारा ही सिद्धि तक पहुंचे थे। यह देखते हुए कि (तू राजघराने का है, जनसाधारण के सम्मुख तुझे आदर्श स्थापित करना चाहिए) 'लोक-संग्रह' अर्थात् लोगों को संग्रहीत (संगठित) या इकट्ठा बनाये रखने के उद्देश्य से भी तुझे कर्म करना चाहिए। आगे कहते हैं-
अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करने लग जाते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाते हैं। अर्थात् वह जैसा आदर्श उपस्थित करता है, उसी का लोग अनुगमन करने लगते हैं। भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं-
अर्थात् हे अर्जुन! मैं सावधान होकर कर्म में न बरतूं तो सब लोग सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुकरण करने लगेंगे और यदि मैं कर्म करना छोड़ दूं (मेरा अनुकरण करने के कारण लोग भी कर्म करना छोड़ देंगे) तो ये सब लोग नष्ट हो जाएंगे, मैं संसार में अव्यवस्था फैलाने वाला बन जाऊँ और इन लोगों का विनाश कर बैठूं। पुनश्च भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे भरतवंशी अर्जुन! जिस प्रकार अज्ञानी कर्म में आसक्त हुए सब काम करते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति को चाहिए कि लोक-संग्रह अर्थात् लोगों को इकट्ठा बनाये रखने (संगठन) की इच्छा से कर्म में 'अनासक्त' होकर कर्म करे।
अर्थात् जो आत्म ज्ञानी नहीं उनके तो सभी कर्म आसक्ति, वासना, कामना, फलेच्छा से ही होते हैं। उनको मोह, ममता आदि भी होती है, उनको अपने परिवार जनों का भरण-पोषण भी करना पड़ता है। वे धन के प्रति अधिक लोलुप भी रहते हैं जिससे कभी-कभी धर्म की मर्यादा का उल्लंघन भी कर सकते हैं तथा अनैतिक कर्म भी करने लगते हैं जिससे समाज में कई प्रकार के दोष भी आ जाते हैं जिससे सारा समाज दूषित हो जाता है किन्तु ज्ञानीजन भी उसी प्रकार कर्म तो करते हैं किन्तु उनके कर्म इन सभी दोषों से मुक्त रहते हैं।
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ज्ञानी पुरुष के सभी कर्म लोक-संग्रह के लिए, जनकल्याण के लिए ही होते है। क्योंकि उन कर्मों में उनकी कोई वासना व आसक्ति नहीं होती। जिससे उनके कर्मबन्धन का कारण नहीं बनते। अज्ञानी और ज्ञानी के कर्मों में समानता होते हुए भी दोनों की दृष्टि में बड़ा अन्तर होता है। ज्ञान प्राप्ति के बाद भी ज्ञानी को कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए। अतः गीता में 'लोक-संगह' अनासक्त भाव से, बिना फल प्राप्ति की इच्छा के लोक कल्याण के लिए कर्म करने की प्रेरणा से कर्म करना है।
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