यज्ञ किसे कहते हैं
यज्ञ वैदिक काल से ही धर्म और संस्कृति के अपरिहार्य अंग रहे हैं। वैदिक युग
में धर्म की सबसे प्रमुख अभिव्यक्ति यज्ञ ही थे। उस समय देवताओं की मूर्तियाँ नहीं
थी न ही उनके मन्दिर हुआ करते थे जिससे की मनुष्य बिना किसी माध्यम के देवताओं से
सीधे सम्पर्क रख सकें। ऐसी स्थिति में उन्होंने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित
करने के लिए, उनके प्रति अपने हृदय के
प्रेम को अभिव्यक्त करने के लिए यज्ञ, प्रार्थना और समर्पण आदि करना सीखा।
यज्ञ के प्रकार
भारतीय संस्कृति में वैदिक ऋषियों ने यज्ञों के पांच प्रकार बताये हैं, जिन्हें हम पंचमहायज्ञ के नाम से भी जानते हैं। ये पंचमहायज्ञ हैं- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ और नृयज्ञ अर्थात् मनुष्ययज्ञ। इन पंचमहायज्ञों में से देवयज्ञ का वर्णन निम्नलिखित है, जहाँ पर देवयज्ञ को पूर्णरूप से दर्शाया गया है।
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देवयज्ञ क्या है
देवयज्ञ का तात्पर्य है- देवताओं को यज्ञ के द्वारा उन्नत करना। वैदिक आर्य
प्रकृति के प्रति प्रारम्भ से ही कृतज्ञ रहे हैं। इसीलिए प्राकृतिक शक्तियों, जैसे की- सूर्य, अग्नि, वायु, पृथ्वी आदि को उन्होंने देवत्व का दर्जा दिया।
वस्तुतः इनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ही देवयज्ञ किया जाता था। इसमें
अग्नि में 'स्वाहा' शब्द के साथ देवता का नाम लेकर समिधा डाली जाती
थी। इसमें त्याग की भावना भी रहती थी। प्रत्येक आहूति के अन्त में इदं देवाय न मम्
अर्थात् यह देवता का है मेरा नहीं है, यज्ञकर्ता कहता था।
मनु ने होम को ही देवयज्ञ कहा है। किन्तु मध्य एवं आधुनिक युग में होम सम्बन्धी
प्राचीन विचार निम्नभूमि में चला गया और उसका स्थान देवपूजा (घर में रखी मूर्तियों
का पूजन) ने ले लिया है।
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