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महर्षि रमण का जीवन परिचय | Biography of Ramana Maharshi | महर्षि रमण कौन थे

नाम- महर्षि रमण
जन्म स्थान- मद्रास के तिरूचुली
जन्म समय- 30 दिसम्बर 1879
पिता का नाम- पंडित सुन्दरम अय्यर

महर्षि रमण का जन्म 30 दिसम्बर सन् 1879 को मद्रास के तिरूचुली गांव में हुआ। इनके पिता पंडित सुन्दरम अय्यर एक ख्याति प्राप्त वकील थे। वह बहुत ही उदार और असहाय लोगों की सहायता करने वाले थे। महर्षि रमण का बचपन का नाम वेंकट रमण था। शुक्ल पक्ष के चंद्र की तरह यह बालक बड़ा होता गया और एक दिन प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वेंकट रमण दिन्दीकुल चले गये। जब वह 12 वर्ष के थे तब उनके पिता का देहान्त हो गया। इस समय इनके चाचा ने इनके परिवार की मदद की। इनके बडे भाई नागस्वामी और वेंकट रमण उच्च शिक्षा के लिए अपने चाचा के यहां जाकर रहने लगे। बचपन से ही वेंकट रमण की स्मरण शक्ति बहुत ही तीव्र थी।

महर्षि रमण एक बार जिस पुस्तक को पढ़ लेते वह उन्हें कंठष्थ हो जाती अध्ययन की अपेक्षा खेल-कूद में वे अधिक दिलचस्पी लेते थे। वे एक कुशल तैराक भी थे। स्कूली पुस्तकों के अलावा रमण का रूझान धार्मिक पुस्तकों की और भी था। पेरिया पुराणम्नामक पुस्तक ने इन्हें एक नई दिशा दी। उनको शरीर और आत्मा के पृथक अस्तित्व का भान होने लगा। एक दिन अरूणांचल के दर्शन करके उनके घर कोई आये हुए थे। अरूणांचल का नाम सुनते ही अचानक वेंकट रमण के हृदय में हलचल मच गयी। उन्हें लगा कि वह इस स्थान से जन्म-जन्मान्तर से परिचित हैं। इसके पश्चात् 1 सितम्बर सन् 1896 के दिन वह अरूणांचल पहुँच गये। अरूणांचलेश मंदिर में दर्शन करने के बाद वह सरोवर के पास आये तो किसी ने कहा- मुण्डनम्अर्थात् सिर मुण्डवाओगे? वह तुरंत राजी हो गये। सिर मुण्डवाने के बाद उन्होंने सरोवर में स्नान किया और अपना सब कुछ वहीं उतार कर वहीं फैक दिया और पूर्णरूप से वैराग्य धारण कर लिया। तत्पश्चात् मंदिर में जाकर ध्यानमग्न हो गये।

Biography-of-Ramana-Maharshi

महर्षि रमण अरूणांचलेश मंदिर में रमण लगभग 6 माह तक रहे। उनकी साधना से प्रभावित होकर स्थानीय लोग इन्हें ब्राह्मण स्वामीकहने लगे। इन दिनों वह समाधि की स्थिति में रहते थे। कुछ समय बाद वह मंदिर छोड़कर अरूणांचल में स्थित एक गुफा में रहने लगे। अब उनकी साधना और भी ज्यादा परिपक्व होने लगी। आमतौर पर यह माना जाता है कि गुरू द्वारा बीज मंत्र पाये बिना साधना अधूरी होती है। इसके विपरीत भारत में ऐसे अनेक संत हुए हैं जो केवल ब्रह्मचर्य एवं आत्मसंयम के माध्यम से मन पर विजय प्राप्त कर चुके हैं। उन्होंने अपनी साधना के माध्यम से अलौकिक शक्ति प्राप्त कर ली थी।

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गणपति शास्त्री तत्कालीन भारत के असाधारण विद्वान थे। उन्होंने 12 वर्षों तक धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया। इतना होने पर भी उन्हें अपनी शंकाओं का समाधान नहीं प्राप्त हुआ। वेंकट रमण ने उनकी सभी शंकाओं का समाधान किया। रमण की इस दैवीय प्रतिभा से प्रभावित होकर गणपति शास्त्री ने उनके चरण स्पर्श करते हुए उनके शिष्य बनने कि इच्छा प्रकट की। गणपति जितने बड़े विद्वान थे उतनी ही बड़ी उनकी शिष्य मंडली थी। शास्त्री जी के शिष्यों के कारण रमण की ख्याति चारों और फैल गयी। अब वे गणपति जी के कारण विद्वत्जनों में महर्षि कहलाने लगे।

इसी प्रकार श्री पाल ब्रण्टन ने भी महर्षि का सानिध्य प्राप्त किया। एक दिन उन्होंने महर्षि से प्रश्न किया की लोगों का कहना है कि- सत्य की खोज के लिए संसार त्याग करके निर्जन वन का आश्रय लेना पड़ता है क्या आप लोगों के इस मत से सहमत हैं। महर्षि रमण ने कहा- कि साधक वही है जो अपने निजि स्वार्थ का समर्पण करता है। अपने झूठे अहम् को छोड़ देना ही सन्यास है इसके लिए कर्म सन्यास की आवश्यकता नहीं है। यदि कोई नित्य नियमित कुछ घण्टों तक ध्यान करे तो सांसारिक कर्तव्यों की आवश्यकता नहीं होगी। क्योंकि ध्यान से एक विचारधारा उत्पन्न होगी जो सांसारिक कार्य करते समय भी तन-मन में बहती रहेगी। और वही तुम्हारे कार्य-कलाप में भी प्रकट होगी।

इस प्रकार महर्षि रमण ने योग से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान करते हुए सांसारिक लोगों को एक सहज उपदेश दिया। सन् 1945 ई. में महर्षि रमण की बाईं बांह में केंसर के रूप में एक गांठ उभरी। चार बार ऑपरेशन कराने के बाद भी वह ठीक नही हुई और अंत में 14 अप्रैल 1950 ई. को महर्षि रमण ने पुराने सभा भवन में समाधि ले ली।

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