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परमहंस योगानन्द का जीवन परिचय | Biography of Paramhansa Yogananda | परमहंस योगानन्द कौन थे

बचपन का नाम- मुकुन्दलाल घोष
जन्म स्थान- गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
जन्म समय- 5 जनवरी 1893
पिता का नाम- भगवती चरण घोष

परमहंस योगानन्द 20वीं सदी के एक आध्यात्मिक गुरू, योगी और संत थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को क्रियायोग का उपदेश दिया तथा पूरे विश्वभर में उसका प्रचार तथा प्रसार किया। परमहंस योगानंद का जन्म 5 जनवरी 1893 को गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके बचपन का नाम मुकुन्दलाल घोष तथा इनके पिता का नाम भगवती चरण घोष था। इनका परिवार योगिराज श्यामाचरण लाहिणी से जुड़ा हुआ था। एक बार जब मुकुन्द बहुत छोटे थे तब उनका परिवार योगिराज के दर्शन करने काशी पहुंचा। एकाएक अचानक उनकी माता के मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि इस बालक पर अगर लाहिणी महाशय की दृष्टि पड़ जाये तो इसका जीवन मंगलमय हो जायेगा। अन्तर्यामी गुरूदेव ने इस इच्छा को जान लिया और उनकी माता को बुलाकर मुकुन्द के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- आयुष्मान भव।

इस आशिर्वाद को सुनकर मुकुन्द की माता उनके भावी जीवन के प्रति आस्थावान हो गयी। पति के साथ उन्होंने भी योगिराज से दिक्षा ले ली। लाहिणी महाशय से दीक्षा लेने के कुछ समय बाद उनका पिताजी का कार्य स्थानांतरण लाहोर में हो गया। एक बार एक अपरिचित सन्यासी ने मुकुन्द की माता को कहा कि ध्यान करते समय अचानक शून्य से आपके हाथ में एक ताबीज गिरेगा उस ताबीज को सम्भाल कर रख देना और बाद में मुकुन्द को दे देना। उन्होंने कहा मुकुन्द एक असामान्य बालक है और वह ताबीज हमेशा मुकुन्द का कल्याण करेगा। जब मुकुन्द की माता ध्यान में बैठी तब ऐसा ही हुआ।

Biography-Of-Paramhansa-Yogananda

मुकुन्द जब अकेला होता तो उसके चेहरे के चारों और एक प्रकार की आभा प्रस्फुटित होती थी। वह एक दिन अपनी माता से बोले कि मेरी आंखों के सामने कईं संत आकर खड़े हो गये मैने उनसे पूछा कि आप कोन हैं तो उन्होंने बताया कि हम सब हिमालय के संत हैं। कभी तुम्हें भी वहां ले जायेगें। यह बात सुनकर बिस्मय से वह उसे देखने लगी और उन्हें लाहिणी महाशय की बातों पर विश्वास हो गया कि उन्होंने कहा था की आगे चलकर यह बालक संत बनेगा।

कुछ समय बाद मुकुन्द की माता का निधन हो गया और माता के निर्देशानुसार बड़े भाई अनन्त ने 14 माह बाद मुकुन्द को वह ताबीज दिया जो अपरिचित सन्यासी ने दिया था। इन्हीं दिनों मुकुन्द के मन में विचार आया कि वह बनारस जाकर योग की शिक्षा ग्रहण करे। उसके बाद वह बनारस गये और योग की शिक्षा प्रारम्भ कर दी। मुकुन्द के भावी गुरू बनारस में ही थे। अतिन्द्रिय शक्ति से उन्होंने जान लिया कि उनके शिष्य का आगमन नगर में हो गया और वे उसे अपनी और आकर्षित करने की क्रिया करने लगे। एक दिन जब मुकुन्द बंगाली टोला से दशाश्वमेध की ओर रहे थे तभी उन्होंने देखा कि गेरवा वस्त्रों से आच्छादित एक सन्यासी उसे तीव्र दृष्टि से देख रहा है। यह उनके गुरू युक्तेश्वर गिरि ही थे। सन्यासी ने उनसे आश्रम की ओर चलने को कहा। आश्रम जाने के पश्चात् एक कमरे में योगिराज श्यामाचरण लाहिणी का चित्र देखकर मुकुन्द चोंक उठा और कहा यह चित्र तो मेरे माता-पिता के गुरूदेव का है। सन्यासी ने कहा यही मेरे पुज्य गुरूदेव हैं। उन्होंने आगे कहा कि मुकुन्द मैं तुम्हारे बारे में सब जानता हूँ, तुम मन लगाकर अध्ययन करो आगे चलकर तुम्हें भारतीय योग पद्धति का ज्ञान देने के लिए पश्चिमी देशों में भी जाना पड़ेगा।

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मुकुन्द के पिता ईधर उस पर दबाव डालने लगे की वह रेलवे की नौकरी कर ले लेकिन इस दिशा में उनकी बिल्कुल रूचि नहीं थी। इसलिए उन्होंने अपने गुरू से आग्रह किया कि वे उसे सन्यास दे दें। जुलाई सन् 1914 को युक्तेश्वर जी ने सिल्क के एक टुकडे को गेरूवे रंग में रंगकर मुकुन्द को ओढ़ा दिया। उन्होंने कहा कि पश्चिम के लोगों को रेशमी वस्त्र बहुत पसंद है और यही वजह है कि मैं तुम्हे रेशमी वस्त्र से सजा रहा हूँ। और इसी के साथ ही उन्होंने पारिवारिक नाम मुकुन्दलाल घोष के स्थान पर स्वामी सम्प्रदाय कि गिरि शाखा के 'योगानन्द गिरिके रूप में उनका नामकरण कर दिया। आगे उन्होंने कहा कि अब तुम्हें कार्य क्षेत्र में उतरना है।

एक दिन उनके गुरू ने योगानन्द से कहा अब तुम्हें अमेरिका जाना है जहां क्रियायोग का ज्ञान उचित व्यक्तियों को देना है। ठीक उन्हीं दिनों बोस्टन (अमेरिका) में आयोजित होने वाले एक धार्मिक सम्मेलन में योगानन्द को आमन्त्रित किया गया। उनके गुरू ने कहा कि यह तुम्हारे लिये एक सुनहरा अवसर है, तुम्हें वहां जाना ही चाहिए। तत्पश्चात् वह जाने कि तैयारी करने लगे। इसी बीच एक दिन अचानक जब योगानन्द ने आवाज सुनकर दरवाजा खोला तो सामने एक कोपीन धारी युवक को देखा। वे परम गुरू के गुरू बाबाजी थे। योगानन्द ने उन्हें पहचान लिया, उन्होंने आदेश दिया की अपने गुरू की आज्ञा मानकर शीघ्र ही अमेरिका चले जाऐं। बाबाजी का आदेश पाने के बाद वे एकदम निर्भय हो गये। अब उन्हें विश्वास हो गया कि मार्ग में किसी भी प्रकार का संकट आने पर उनके गुरू और बाबाजी उनकी सहायता करेंगे।

बोस्टन की धर्म सभा में अपने भाषण के माध्यम से योगानन्द ने श्रोताओं को प्रभावित किया उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि यह सब गुरू की कृपा से ही हो रहा है। सन् 1920 से 1930 तक हजारों अमेरिकी जनता ने उनकी क्रियायोग पद्धति से आकृष्ट होकर शिष्यत्व ग्रहण किया। इसी बीच केलिफोर्निया में सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप-योगदा सत्संग सोसायटी ऑफ़ इण्डिया का अन्तर्राष्ट्रिय कार्यालय की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से अध्यात्म तथा क्रियायोग का प्रचार होने लगा। यहां पर इन्होंने 15 वर्षों तक कार्य किया और एक दिन अचानक उन्हें अंतरात्मा में अपने गुरू की आवाज सुनाई दी कि अब भारत जाओं मैं शीघ्र शरीर त्यागकर प्रस्थान करने वाला हूँ। वे गुरू आदेश मानकर अमेरिका से 9 जून सन् 1935 के दिन भारत गये। यहां उनका अभूत्पूर्व स्वागत किया गया इसके बाद गुरूदेव से अनुमति लेकर अपने शिष्यों के साथ वे भारत के विभिन्न स्थानों में भ्रमण करने लगे। अचानक उन्हें एक दिन गुरूदेव के देहत्याग का समाचार मिला। 9 मार्च को उनके देहत्याग के पश्चात् 10 मार्च को सन्यासियों की परम्परा के अनुसार श्री युक्तेश्वर गिरि को समाधि दे दी गई।

गुरूदेव के निधन के पश्चात् योगानन्द जी भारत के विभिन्न संतो से मिलते रहे सन् 1938 में दक्षिणेश्वर में उन्होंने योगदा आश्रम स्थापित किया इसके पश्चात् वे पुनः पश्चिम चले गये। 7 मार्च 1952 के दिन भारतीय राजदूत श्री विनय रंजन सेन के सम्मान में आयोजित समारोह में भाषण देने के बाद योगानन्द ने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया। स्वामी विवेकानन्द के पश्चात् स्वामी योगानन्द जी ने भारतीय अध्यात्म का प्रचार पश्चिमी देशों में करके यह प्रमाणित कर दिया कि इस क्षेत्र में भारत अन्य देशों से आगे है।

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