तैत्तिरीयोपनिषद् का परिचय
तैत्तिरीयोपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के तैत्तिरीय आरण्यक का एक भाग है। तैत्तिरीय आरण्यक के 10 अध्यायों में से क्रमश: सातवें, आठवें एवं नौवें अध्यायों को ही तैत्तिरीयोपनिषद् के रूप में मान्यता मिली है। हम पूर्व में भी देख चुके हैं की मुख्य दस उपनिषदों के अंतर्गत तैत्तिरीयोपनिषद् का भी उल्लेख प्राप्त होता है। तैत्तिरीयोपनिषद् में तीन वल्लियों का वर्णन प्राप्त होता है- शीक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली तथा भृगुवल्ली। इन तीनों वल्लियों में वर्णित सभी विषय निम्नलिखित वर्णित हैं।
प्रथम वल्ली
प्रथम वल्ली अर्थात् शिक्षावल्ली के प्रारम्भ में अधिलोक, अधिज्यौतिष, अधिविद्य, अधिप्रज और अध्यात्म नामक पाँच महासंहिताओं का वर्णन प्राप्त होता है तथा इन पांच संहिताओं की फलश्रुति भी दी गयी है। साधना क्रम में ॐकार तथा भूः भुव: स्व: महः आदि व्याहृतियों के महत्त्व का उल्लेख है। अन्त में अध्ययन एवं अध्यापन करने के लिए सदाचार परक मर्यादा सूत्रों का उल्लेख करके विचार के साथ आचार की महत्ता का बोध कराया गया है।
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द्वितीय वल्ली
द्वितीय वल्ली अर्थात् ब्रह्मानन्दवल्ली में हृदयगुहा में स्थित परमेश्वर को जानने का महत्त्व समझाते हुए उसके पंचकोश अर्थात् अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय कलेवरों का विवेचन है।
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तृतीय वल्ली
तृतीय वल्ली अर्थात् भृगुवल्ली में भृगु की ब्रह्मपरक जिज्ञासा का समाधान उनके पिता वरुण ने किया है। तत्त्वज्ञान को समझाकर उन्हें तपश्चर्या द्वारा स्वयं अनुभव करने का निर्देश दिया गया है। उन्होंने क्रमशः अन्न, प्राण, मन, विज्ञान एवं आनन्द को ब्रह्म रूप में अनुभव किया। तब वरुण ने उन्हें अन्नादि का दुरुपयोग न करके उसके सनियोजन का विज्ञान समझाया। अन्त में भगवद्भाव प्राप्त साधक की स्थिति तथा उसके समतायुक्त उद्गारों का उल्लेख किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद का परिचय इस प्रकार से प्राप्त होता है।
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