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स्वर योग क्या है | Swar Yog Kya Hai | Swar Yog in Hindi | स्वर योग का अर्थ

स्वर योग क्या है

स्वरयोग एक अत्यन्त प्राचीन विज्ञान एवं साधना पद्धति है, इसका संबंध हमारे प्राणिक शरीर की ताल-मेल से है। स्वरयोग इस तथ्य पर पर्याप्त प्रकाश डालता है कि श्वास द्वारा किस प्रकार प्राण को नियंत्रित तथा संचालित किया जा सकता है। अभी हाल ही के कुछ वर्षों में विज्ञान ने विद्युत चुंबकीय क्षेत्रों तथा शारीरिक ऊर्जा के विषय में गहरी रुचि प्रदर्शित की है। स्वर योग अर्थात् स्वर विज्ञान के अन्तर्गत स्वर की उत्पत्ति, इतिहास, उद्देश्य, इसके प्रकार, इनके कार्य, स्वर साधना, स्वर-तत्व विचार, स्वर से मोक्ष प्राप्ति आदि का सुव्यवस्थित वर्णन प्राप्त होता है।

स्वर योग का अर्थ

योग की वह साधना पद्धति, जिसमें स्वरों को मुख्य आधार बनाकर व स्वर-साधना के मार्ग पर आरूढ़ होकर, मोक्ष अर्थात् कैवल्यपद की प्राप्ति की जाती है, योग की वह साधना पद्धति स्वर योग कहलाती हैं। प्राचीन ऋषियों-मुनियों ने दोनों नासारन्ध्रों में से प्रत्येक में श्वाँस के प्रारम्भ होने (स्वरोदय) तथा बंद होने पर कुछ विशेष प्रकार की बातों को देखा, जो उनके शरीर की विभिन्न गतिविधियों पर प्रभाव ही नहीं डालती, अपितु उन पर शासन करती थीं।

Swar-Yog-in-Hindi

इस प्रकार इन ऋषियों ने अपने अनुभवों को लिपिबद्ध किया तथा मानव जाति के ज्ञानार्थ एवं कल्याणार्थ स्वर के ज्ञान को सुनियोजित, अनुशासित एवं सुव्यवस्थित तौर पर ग्रंथ के रूप में प्रतिपादित किया। अत: स्वर के अनुशासित एवं सुव्यवस्थित ज्ञान को स्वर का विज्ञान, अर्थात् स्वर विज्ञान कहते हैं।

स्वर शब्द की दो प्रकार की अभिव्यक्तियां

स्वर शास्त्र में 'स्वर' शब्द को दो प्रकार की अभिव्यक्ति हेतु प्रयोग में लाया जाता है:- 1. ब्रह्माण्डीय स्वर, 2. मानव देह स्थित स्वर। दोनों प्रकार की अभिव्यक्तियों को निम्नांकित परिभाषित क्या गया है-

1. ब्रह्माण्डीय स्वर

शिवस्वरोदय में ब्रह्माण्डीय स्वर की अवधारणा को दर्शाते हुए कहा गया है की-

ब्रह्माण्डखण्डपिण्डाद्याः स्वरेणैव हि निर्मिताः।
सृष्टिसंहारकर्ता च स्वरसाक्षान्महेश्वरः ।।20।।
शिवस्वरोदय

अर्थात् ब्रह्माण्ड तथा उसके खण्ड, पिण्ड आदि (सूर्य, चन्द्र आदि) का निर्माण स्वरों से ही होता है। स्वर साक्षात् परमेश्वर शिव का स्वरूप है, जो सृष्टि की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करने वाले हैं। उपरोक्त सन्दर्भ से यह निष्कर्ष निकलता है कि स्वर-शास्त्र में परमपिता परमेश्वर 'शिव' को 'स्वर' शब्द से अधिकृत किया गया है; अर्थात् स्वर ही साक्षात् 'शिव' है।

स्वरे च सर्व त्रैलोक्यं स्वरमात्मस्वरूपकम् ।।16।। 
शिवस्वरोदय

अर्थात् स्वर से ही तीनों लोक प्रतिष्ठित है तथा स्वर ही 'आत्मस्वरूप' है। स्वर को जानने से आत्मा का बोध होता है। इस कथन में भी परमपिता परमेश्वर को 'स्वर' की संज्ञा दी गई है, जिनके जानने मात्र से आत्मबोध के आधार पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। जब 'ब्रह्माण्डीय स्वर' साक्षात् परमेश्वर (शिव, ओंकार, अजन्मा, अविनाशी, अनन्त, निराकार, अनादि सर्वशक्तिमान आदि) का ही स्वरूप है, तो ब्रह्माण्डीय स्वर की उत्पत्ति एवं विनाश की चर्चा करना निरर्थक है। यह ब्रह्माण्डीय स्वर भी परमेश्वर की भाँति ही अनादि और सनातन है।

2. मानव देह स्थित स्वर

आत्मा को संचालित करने वाली प्राणवायु की अपरम्पार गति, काल की गति के अनुसार गतिमय होती हुई, अपना कार्य सुनियोजित ढंग से करती है। निरन्तर इस प्रवाहित होती हुई ऊर्जा को वायु तत्व अपने सुदृढ़ बन्धनों में बांधकर सुचारू रूप से गतिमान करता रहता है। हर प्राणी श्वाँस लेने की गति से बंधा है, जिसे ऋषि-मुनियों ने अपनी ऋचाओं में, योगियों ने अपने योग में तथा विद्वानों ने अपनी संस्कृति में इसे 'सोऽहं' जनित 'अनाहत' नाम दिया है। इस अनाहत प्राणवायु रूपी श्वास-प्रश्वास का आवागमन, जो कि नासिका छिद्र से होता है, निरंतर बिना किसी अवरोध के सुसंचालित होता रहता है। इसका एक सम्पूर्ण नियम है कि यह एक ही समय दोनों नासिका छिद्रों से नहीं चलता, अपितु एक निश्चित समय और नियम के अनुसार क्रमश: दोनों नासारंध्रों से अलग-अलग समय पर चलता है।

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नासिका में प्राणवायु के प्रवेश और निगर्मन के समय श्वाँस की एक सूक्ष्म ध्वनि-तरंग उत्पन्न हुई सी प्रतीत होती है। स्वर शास्त्र में शब्द विज्ञान को दृष्टि से श्वाँस-प्रश्वास से उत्पन्न इसी 'ध्वनि प्रकम्पनको 'स्वर' के नाम से जाना जाता है। उपरोक्त अवधारणा के आधार पर स्वर को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है- मनुष्य की नासिका में वायु के प्रवेश एवं निर्गमन समय श्वाँस की जो एक प्राकृतिक ध्वनि तरंग उत्पन्न हुई सी प्रतीत होती है, शब्द विज्ञान की दष्टि से श्वास-प्रश्वास से उत्पन्न उसी प्राकृतिक ध्वनि प्रकरम्पन (सोऽहं) को स्वरशास्त्र में स्वर के नाम से जाना जाता है।

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