योग का इतिहास
ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी पर जब से मानव सभ्यता शुरू हुई है तभी से योग चलता आ रहा है। योग विज्ञान की उत्पत्ति आज से हजारों वर्ष पहले हुई थी, धर्मों या आस्थाओं के जन्म लेने से काफी पहले हुई थी। योग विद्या में शिव को पहले योगी या आदि योगी तथा पहले गुरू या आदि गुरू के रूप में माना जाता है। कई हजार वर्ष पहले, हिमालय में कांति सरोवर झील के तटों पर आदि योगी ने अपने प्रबुद्ध ज्ञान को अपने प्रसिद्ध सप्तऋषियों को प्रदान किया था।
सप्तऋषियों ने इस योग को एशिया, मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका एवं दक्षिण अमरीका सहित विश्व के भिन्न-भिन्न भागों में पहुंचाया। रोचक बात यह है कि आधुनिक विद्वानों ने पूरी दुनिया में प्राचीन संस्कृतियों के बीच पाए गए घनिष्ठ समानांतर को ग्रहण किया है। तथापि, भारत में ही योग ने अपनी सबसे पूर्ण अभिव्यक्ति प्राप्त की।
योग परम्परा और योग शास्त्रों का विस्तृत इतिहास रहा है, यद्यपि आज योग का बहुत सारा इतिहास नष्ट हो गया है। किन्तु जिस तरह राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर के निशान इस भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह बिखरे पड़े है उसी तरह योगियों और तपस्वियों के निशान जंगलों, पहाड़ों और गुफाओं में आज भी देखे जा सकते है। जो योग के इतिहास को दर्शाते हैं।
योग का वर्णन
अर्थात् योग के बिना विद्वानों का कोई भी यज्ञकर्म सिद्ध नहीं होता। वह योग क्या है? महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है, जो की कर्तव्य कर्ममात्र में व्याप्त है।
अर्थात् वह परमात्मा हमारी समाधि के निमित्त अभिमुख हो, उसकी दया से समाधि, विवेकख्याति तथा ऋतम्भरा प्रज्ञा का हमें लाभ प्राप्त हो, अपितु वही परमात्मा अणिमा आदि सिद्धियों के सहित हमारी ओर आगमन करे। वैदिक काल में यज्ञ और योग का बहुत महत्व था। इसके लिए उन्होंने चार आश्रमों की व्यवस्था निर्मित की थी। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदों की शिक्षा के साथ ही शस्त्र और योग की शिक्षा भी दी जाती थी।
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ऋग्वेद को 1500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच लिखा गया माना जाता है। इससे पूर्व वेदों को कंठस्थ कराकर हजारों वर्षों तक स्मृति के आधार पर संरक्षित रखा गया था। भारतीय दर्शन के मान्यता के अनुसार वेदों को अपौरुषेय माना गया है अर्थात् वेद परमात्मा की वाणी हैं तथा इन्हें करीब दो अरब वर्ष पुराना माना गया है। इनकी प्राचीनता के बारे में अन्य मत भी हैं। ओशो (रजनीश) ऋग्वेद को करीब 90 हजार वर्ष पुराना मानते हैं।
जैन और बौद्ध जागरण और उत्थान काल के दौर में यम और नियम के अंगों पर जोर दिया जाने लगा। यम और नियम अर्थात् अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान का प्रचलन ही अधिक रहा। यहाँ तक योग को सुव्यवस्थित रूप नहीं दिया गया था। पहली बार 200 ई.पू. पतंजलि ने वेद में बिखरी योग विद्या का सही-सही रूप में वर्गीकरण किया। पतंजलि के बाद योग का प्रचलन बढ़ा और यौगिक संस्थानों, पीठों तथा आश्रमों का निर्माण होने लगा, जिसमें केवल राजयोग की शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी।
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