मंत्रयोग का अर्थ
मंत्र शब्द 'मन्' शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है चिंतन करना, तथा 'त्र' का अर्थ त्राण से है। इस प्रकार मंत्र शब्द का अर्थ हुआ चिंतन के माध्यम से मुक्ति। मानसिक, आध्यात्मिक आदि उत्थान हेतु मंत्र का विशेष महत्त्व है। किसी मंत्र विशेष के निरंतर या नियमित जप के माध्यम से कर्म-बन्धनों का क्षय करते हुए मुक्ति को प्राप्त होने की प्रक्रिया ही मंत्रयोग कहलाती है। मननात् त्रायते इति मंत्रः अर्थात् वह शक्ति जो मन को बन्धन से मुक्त करे वही मंत्र है।
मंत्र शब्द का सामान्य अर्थ ध्वनि या कंपन से है। योग उपनिषदों में मंत्रयोग का पांचवां स्थान है। योग के अनुसार मन को अशुद्धियों से बचाना एवं बिखराव से रोकना ही किसी भी योग विधि का उद्देश्य होता है। जीवन के तामसिक और राजसिक गुणों के प्रति आकर्षण ही अशुद्धियाँ हैं। जिसके परिणामस्वरूप वह एक निश्चित रूप से कार्य करने लगता है।
मन केवल एक से दूसरी वस्तु की तरफ भागता है, मनोरंजन चाहता है स्वार्थपूर्ण इच्छाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए प्रयास करता है। मन को इन प्राकृतिक, गुणों, इच्छाओं तथा अहंकार से मुक्त करना ही मंत्र का उद्देश्य है।
मंत्रों के उपयोग की प्रक्रिया को जप योग कहा जाता है। मन्त्र एक ध्वनि तरंग है जिसमें अद्भुत शक्ति है जो सूक्ष्म जगत से एक तरंग पैदा करता है (नियमित मंत्र जप) मन्त्र ध्वनि कंपन है। जिसे 50 ध्वनियों में विभक्त किया गया है। किसी भी मंत्र को दुहराने से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। वे विभिन्न चक्रों की उन क्षमताओं को उत्प्रेरित और जागृत करती हैं। जिनका संबंध उन ध्वनियों से रहता है।
मंत्र जप के प्रकार -
1. सार्वभौमिक
2. उपांशु
3. पश्यन्ति एवं
4. परा। ग्रंथों में मंत्र जप के उपरोक्त चार प्रकार बताये गये हैं, जिनका विस्तृत वर्णन निम्नलिखित है-
1. सार्वभौमिक - सार्वभौमिक मंत्र जप सभी लोग करते
हैं। इसमें मंत्र का उच्चारण औरों को भी सुनाई देता है। इसके अंतर्गत व्यक्तिगत मंत्र, विशेष परिस्थितियों में बनाये गये मंत्र हैं
2. उपांशु - इसके अन्तर्गत निम्न विधि से साधना की
जाती है- लगातार फुसफुसाहट युक्त आवृत्ति, श्वास के साथ फुसफुसाहट युक्त
आवृत्ति, माला के साथ आवृत्ति, शारीरिक क्रियाओं के साथ आवृत्ति
3. पश्यन्ति - इसके अन्तर्गत की जाने वाली साधना
निम्न प्रकार से की जाती हैं- सहज निरन्तर मानसिक आवृत्ति, श्वास के साथ, माला के साथ, किसी प्रतीक पर एकाग्रता करते हुए, चिदकाश लेखन के साथ
4. परा - यह एक प्रकार की मानसिक धुन है। मंत्र के
भावों की मानसिक आवृत्ति स्वत: चलने लगे। जब हम स्थिर मन से किसी मंत्र का जप
प्रारंभ करते हैं तो एकाग्रता की स्थिति प्राप्त होती है मन बुद्धि चित्त और
अहंकार इन मानसिक उपखण्डों के बिखराव को रोककर स्थिरता प्राप्त करता है। समस्त
क्रिया कलाप रूक जाते हैं। मनः चतुष्टय की अस्त व्यस्तता समाप्त हो जाती
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मंत्रयोग के अभ्यास से प्रत्येक उपखण्ड में स्थित क्षमताओं एवं शक्तियों का समान रूप से वितरण होता है और मानसिक क्रियाएं संतुलित हो जाती हैं। मंत्रयोग का शारीरिक स्तर पर भी प्रभाव देखा गया है। अगले चरण में मानसिक तनावों का उन्मूलन होता है। इस अवस्था में चेतना की परम सक्रियता या तनाव समाप्त हो जाता है। मंत्रयोग के माध्यम से अनिद्रा आदि से ग्रस्त व्यक्ति निद्रा की प्राप्ति कर सकते हैं। चौथा पहलू मन को सुग्राही बनाता है जिससे वातावरण की परिस्थितियों के सूक्ष्म कंपनों का पता लगाना संभव हो पाता है। समाने वाले व्यक्ति के मनोभावों को आसानी से समझा जा सकता है। मंत्रयोग के द्वारा मनुष्य अपने आत्मिक शक्तियों को जगाने में समर्थ हो जाता है। इसका प्रथम अनुभव मानसिक शिथिलीकरण के रूप में होता है।
मंत्र के कंपन द्वारा अनवरत स्पर्श करते रहने से चक्रों के अन्दर स्पन्दन या उत्प्रेरण का अनुभव सहज ही किया जा सकता है। यौगिक परंपरा में यह कहा गया है कि हठयोग या राजयोग में आधारभूत प्रशिक्षण प्राप्त किये बिना मंत्र के उपयोग से चक्रों एवं कुण्डलिनी को जागृत करना संभव है, यहाँ तक कि समाधि भी। मंत्रयोग के माध्यम से आध्यात्मिक उत्थान हेतु श्रेष्ठ मंत्रों का चयन किया जाना अत्यंत आवश्यक है।
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