बृहदारण्यकोपनिषद का परिचय
बृहदारण्यक उपनिषद् मुख्य दस उपनिषदों के श्रेणी में सबसे अंतिम उपनिषद् माना जाता है। उपनिषद् शब्द का अर्थ एवं मुख्य दस उपनिषदों के विषय में हम पूर्व में ही जान चुके हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा के वाजसनेयि ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण के अन्तर्गत का एक भाग है। बृहत् अर्थात् (बड़ा) और आरण्यक अर्थात् (वन) में विकसित होने के कारण इस उपनिषद् को 'बृहदारण्यक' उपनिषद् कहा गया। इस उपनिषद् में कुल छः अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में अनेक-अनेक ब्राह्मण हैं।
प्रथम अध्याय
बृहदारण्यक उपनिषद् के प्रथम अध्याय में छः ब्राह्मण हैं। प्रथम ब्राह्मण (अश्वमेध परक) में सृष्टि रूप यज्ञ को एक विराट् अश्व की उपमा से व्यक्त किया गया है और दूसरे ब्राह्मण में प्रलय के बाद सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है। तीसरे ब्राह्मण में देवों एवं असुरों के प्रसंग से प्राण की महिमा और उसके भेद स्पष्ट किये गये हैं। चौथे ब्राह्मण में ब्रह्म को सर्वरूप कहकर उसके द्वारा चार वर्गों के विकास का उल्लेख है। छठवें में विभिन्न अन्नों की उत्पत्ति तथा मन, वाणी एवं प्राण के महत्त्व का वर्णन है। साथ ही नाम, रूप एवं कर्म की प्रतिष्ठा भी है।
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द्वितीय अध्याय
बृहदारण्यक उपनिषद् के दूसरे अध्याय के प्रथम ब्राह्मण में डींग हाँकने वाले गार्ग्य बालाकि एवं ज्ञानी राजा अजातशत्रु के संवाद के द्वारा ब्रह्म एवं आत्म तत्व को स्पष्ट किया गया है। साथ ही दूसरे एवं तीसरे ब्राह्मण में प्राणोपासना तथा ब्रह्म के दो (मूर्त और अमूर्त ) रूपों का वर्णन है। चौथे ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी संवाद है। यह संवाद अध्याय चार ब्राह्मण पांच में भी लगभग एक ही प्रकार से है। पाँचवें और छठे ब्राह्मण में मधुविद्या और उसकी परम्परा का वर्णन किया गया है।
तृतीय अध्याय
बृहदारण्यक उपनिषद् के तीसरे अध्याय के नौ ब्राह्मणों के अन्तर्गत राजा जनक के यज्ञ में याज्ञवल्क्य से विभिन्न तत्त्ववेत्ताओं की प्रश्नोत्तरी है। गार्गी ने दो बार प्रश्र किए हैं, पहली बार अतिप्रश्न करने पर याज्ञवल्क्य ने उन्हें मस्तक गिरने की बात कहकर रोक दिया।
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चतुर्थ, पंचम एवं षष्टम अध्याय
बृहदारण्यक उपनिषद् के चौथे अध्याय में याज्ञवल्क्य और जनक संवाद एवं याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी संवाद है। अन्त में इस काण्ड की परम्परा है। पाँचवें अध्याय में विविध रूपों में ब्रह्म की उपासना के साथ मनोमय पुरुष एवं वाक् की उपासना भी कही गयी है। मरणोत्तर ऊर्ध्वगति के साथ अन्न एवं प्राण की विविध रूपों में उपासना समझायी गयी है। गायत्री उपासना में जपनीय तीनों चरणों के साथ चौथे 'दर्शत' पद का भी उल्लेख है। छठे अध्याय में प्राण की श्रेष्ठता तथा सन्तानोत्पत्ति के विज्ञान का वर्णन है। अन्त में समस्त प्रकरण के आचार्य परम्परा की श्रृंखला व्यक्त की गयी है। बृहदारण्यकोपनिषद का परिचय इस प्रकार से प्राप्त होता है।
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