योगचूडामण्युपनिषद् का परिचय
योगचूडामण्युपनिषद् सामवेदीय परम्परा से सम्बंधित उपनिषद् है। उपनिषद् क्या हैं, मुख्य उपनिषदों की कुल संख्या एवं उपनिषदों में योग का स्वरुप क्या है इस विषय
में हम पूर्व में जान चुके हैं। योग चूड़ामणि उपनिषद् में योग साधना द्वारा आत्मशक्ति
जागरण की प्रक्रिया का समग्र मार्गदर्शन किया गया है। इस उपनिषद् में योग के छः
अंगों का वर्णन प्राप्त होता है जिनका विस्तृत वर्णन अग्रलिखित है, योग के इन्हीं अंगों के वर्णन के कारण इस उपनिषद् को योग के मुख्य उपनिषदों में से
एक माना जाता है।
योगचूडामण्युपनिषद् में सर्वप्रथम योग के छ: अंगों- आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का उल्लेख किया गया है। तदुपरान्त योग की सिद्धि के लिए आवश्यक देहतत्त्व का ज्ञान, मूलाधार आदि चक्रों का ज्ञान, योनिस्थान अर्थात् कुण्डलिनी में परम ज्योति के दर्शन, नाड़ीचक्र, नाड़ी स्थान, नाड़ियों में संचरित प्राणवायु और उनकी क्रियाएँ, प्राणों के साथ जीव की गतिमयता, अजपा गायत्री का अनुसन्धान, कुण्डलिनी द्वारा मोक्ष द्वार का भेदन, तीन बन्ध- मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध तथा उड्डियानबन्ध आदि का वर्णन किया गया है।
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मुद्राओं में खेचरी मुद्रा, वज्रोली आदि के लक्षण, महामुद्रा का स्वरूप, प्रणव (ॐकार) जप की विशेष प्रक्रिया, प्रणव एवं ब्रह्म की एकरूपता, प्रणव (ॐ) के अवयव (अ, उ, म्) का अर्थ, तुरीयोङ्कार द्वारा अग्रब्रह्म की साधना, प्रणव एवं हंस साधना, कैवल्यबोध आदि का वर्णन किया गया है।
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निःसन्देह ही योगचूडामण्युपनिषद् के अनुसार साधना करने वाला साधक योग के क्षेत्र में चूड़ामणि (मुकुट) स्तर का बन सकता है, अर्थात् अन्य योग साधकों के अपेक्षा श्रेष्ठ योग शिरोमणि बन सकता है। योगपरक उपनिषदों में इस चूड़ामणि उपनिषद् का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। योगचूडामण्युपनिषद का परिचय इस प्रकार से प्राप्त होता है।
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