श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित योग
भगवान वेदव्यास द्वारा रचित भगवद्गीता ग्रंथ में वर्णित योग का स्वरुप प्रारंभ करने से पूर्व हमें श्रीमद्भगवद्गीता का परिचय एवं श्रीमद्भगवद्गीता का महत्व जानना अत्यंत जरूरी है, जिनके विषय में हम पूर्व में देख चुके हैं। श्रीमदभगवद्गीता ग्रंथ सम्पूर्ण योगशास्त्र है इसलिए इसके प्रत्येक अध्याय के अंत में लिखा है कि- यह ब्रह्मविद्या का ग्रन्थ है, यह उपनिषदों का भाग है तथा यह एक योगशास्त्र है। सामान्य अर्थ में कहा जाये तो श्रीमद्भगवद्गीता के अट्ठारह अध्यायों में योग का वर्णन होने के कारण ही इसे योगशास्त्र कहा जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता के एक-एक अध्याय की साधना से मनुष्य को मुक्ति प्राप्त हो सकती है इसके अलावा फिर किसी अन्य साधना की आवश्यकता नहीं रहती। श्रीमद्भगवद्गीता का दूसरा अध्याय 'ज्ञानयोग' अर्थात् सांख्ययोग के नाम से जाना जाता है जिसमें ज्ञान को ही मुक्ति का साधन माना गया है। इसी ज्ञान के अन्तर्गत ही 'समत्व-योग' अर्थात् 'बुद्धि-योग' का वर्णन है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि-
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
अर्थात् जो पुरूष समबुद्धि होकर कर्म करता है उसको पाप-पुण्य लिप्त ही नहीं होते, क्योंकि उसमें पाप-पुण्य के विचार ही पैदा नहीं होते। समबुद्धि युक्त पुरूष पुण्य और पाप इसी लोक में त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है। इसलिए तू समत्वरूप योग में लग जा, यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है।
भगवद्गीता में जो भी ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से दिया है, वह एकमात्र समस्त मानव जाति के कल्याण एवं हित के लिए दिया है। इन सभी योगों में से भगवान श्रीकृष्ण का कर्मयोग का उपदेश सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि कर्म ही मनुष्य के जीवन का आधार है। बिना कर्म किए कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता किन्तु कर्म किस प्रकार किए जाएं जिससे मनुष्य अपने जीवन को सफल बनाता हुआ परमगति को प्राप्त हो सके, यह सन्देश केवल भगवद्गीता में ही प्राप्त होता है।
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प्रकृति के रजोगुण के कारण मनुष्य की कर्म में प्रवृत्ति तो होती ही है। उसे अपनी प्रकृति से बाध्य होकर कर्मतो करने ही पड़ते हैं। बिना कर्म किये वह एक क्षण भी रूक नहीं सकता, किन्तु वे कर्म किस प्रकार के होने चाहिए इसका स्पष्ट विवेचन भगवद्गीता में प्राप्त होता है। इसलिए गीता में 'कर्म-योग' का उपदेश अधिक महत्वपूर्ण है अन्य सभी उपदेश इसकी अपेक्षा गौण बन गए हैं। कर्म के द्वारा कैसे योग को प्राप्त किया जाये इस हेतु भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि-
योगस्थः कुरु कर्माणि
संग त्यक्त्वा धनंजय।
अर्थात् हे अर्जुन! तू आसक्ति का त्यागकर तथा सिद्धि-असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्त्तव्य कर्मों को कर। क्योंकि 'समत्व' (समता में स्थित रहना) ही योग कहलाता है।
अर्जुन को एक ओर बंधु-बान्धवों का मोह तथा दूसरी ओर पाप का भय उसे युद्ध करने से विचलित कर रहा था, जिससे वह कर्त्तव्य कर्मों को ही भूल गया था कि ऐसे कर्त्तव्य पालन से क्या लाभ जिसमें हिंसा हो, ऐसे ही विचार अर्जुन को कर्त्तव्य से विमुख कर रहे थे। इनका समाधान देते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्त्तव्य पालन करना प्रत्येक मनुष्य का स्वधर्म है। पाप के भय से कर्त्तव्यों कर्मों का त्याग कर देना सबसे बड़ा पाप है।
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यदि पाप के भय से सभी अपने कत्तव्यों का त्याग कर दें तो इस सृष्टि की सम्पूर्ण गतिविधियाँ ही बन्द हो जाएगी, जिससे मनुष्य का जीवित रहना ही असम्भव हो जाएगा। यह सारी सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान आदि मनुष्यों के कर्मों का ही फल है जिसका जो कर्त्तव्य है उसका पालन करते रहना ही मनुष्य का धर्म है।
हे अर्जुन! तू जिस पाप की बात करता है वह पाप आसक्ति के कारण होता है, कर्त्तापन के कारण ही होता है। अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के कारण जो भी कर्म किये जाते हैं वे ही अपना फल देते हैं। यदि तेरी किसी को मानने में आसक्ति नहीं है, न किसी फल की चाह है, न तू राग-द्वेष से युक्त होकर कर्म कर रहा है, तो ऐसे कर्म तेरे बन्धन का कारण नहीं बनेंगे, न तुझे पाप ही लगेगा। अतः तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि-असिद्धि को समान मानकर कि मैं जीतूंगा या हारूँगा इस भावना को छोड़कर 'योग' में स्थित होकर केवल कर्त्तव्य का ध्यान रखकर युद्ध कर, फिर तुझे कोई पाप नहीं लगेगा। इस प्रकार 'समत्व' (समता) ही योग कहलाता है। पुनः भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि-
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
अर्थात् इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त निम्न कोटि का है। इसलिए हे धनन्जय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँड अर्थात् 'बुद्धियोग' का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त ही दीन होते हैं। जो व्यक्ति फल की इच्छा से ही कर्म करते हैं वे अत्यन्त दीनहीन वृत्ति वाले हैं। उनके सामने फल की इच्छा ही मुख्य होती है जिससे उनके कर्मों में कभी श्रेष्ठता नहीं आ सकती। ऐसे ही व्यक्ति अनैतिक कर्म करके भी, कर्मों में उदासीनता रखते हुए भी फल प्राप्त करने की ही इच्छा रखते हैं। उनके लिए फल प्राप्ति ही मुख्य बन जाता है व कर्म गौंण बना जाता है। वे निकृष्ट कर्म करके भी फल की इच्छा करते हैं।
सकाम कर्म करने वाले ऐसे दीन-हीन श्रेणी के व्यक्ति होते हैं जो फल प्राप्ति की इच्छा से ही कर्म करते हैं वे ईश्वर की आराधना, देवपूजा, सेवा, सहायता, दान, पुण्य आदि सभी कर्म इसलिए करते हैं जिससे की इनका उन्हें फल प्राप्त हो। ऐसे व्यक्तियों को कर्मों का फल भोगना पड़ता है। किन्तु जो फल की चाह न करके केवल अपने कर्त्तव्यों को पूरा करते हैं वे ही पूज्य व प्रशंसनीय होते हैं। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है की तू फल की चिन्ता न करके समत्व-बुद्धि वाला होकर अपने कर्त्तव्यों का पालन कर।
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