श्वेताश्वतरोपनिषद्
श्वेताश्वतरोपनिषद् कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत का एक उपनिषद् है। इस उपनिषद् में सांख्य, योग एवं वेदांत के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में कुल कुल छ: अध्याय हैं। उपनिषद् क्या है और उपनिषदों का सम्पूर्ण परिचय एवं उपनिषदों की कुल संख्या कितनी है साथ ही उपनिषदों में योग का स्वरुप क्या है इन सब विषयों के बारे में हम पूर्व में ही चर्चा कर चुके हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद् के बारे में ऐसा माना जाता है की श्वेताश्वतर नाम के ऋषि के नाम से ही इस उपनिषद् का नाम श्वेताश्वतरोपनिषद् पड़ा है।
प्रथम अध्याय
श्वेताश्वतरोपनिषद् के प्रथम अध्याय में जगत् का मूल कारण जानने की जिज्ञासा की गई है। चर्चा से निर्णय न हो पाने पर ध्यान द्वारा अनुभूति के आधार पर सृष्टि को क्रमश: एक चक्र, विशिष्ट प्रवाह के रूप में वर्णित किया गया है। मूल तत्त्व, परमात्मतत्त्व को जानने की आवश्यकता तथा उसका फल समझाते हुए जीव, प्रकृति एवं ईश तथा परमात्मा, भोक्ता, भोग्य आदि प्रभागों का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। अंत में ॐकार साधना द्वारा तिल में तैल की तरह हृदय प्रदेश में स्थित परमात्म तत्त्व के साक्षात्कार का निर्देश है।
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द्वितीय अध्याय
इस उपनिषद् के दूसरा अध्याय ध्यान योग साधना परक है। ध्यान का महत्त्व समझाते हुए उसके विधि-विधान, प्राणायाम, स्थान आदि का मर्यादाएं समझाते हुए उन्नति के लक्षण भी दर्शाए गये हैं। योग साधना से पंचभूत सिद्धि एवं आत्म तत्त्व से ब्रह्म तत्त्व के साक्षात्कार की फलश्रुतियाँ बतलाते हुए परमतत्व को नमस्कार किया गया है।
तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय
श्वेताश्वतरोपनिषद् के तीसरे और चौथे अध्याय में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति संचालन और विलय में समर्थ परमात्म सत्ता की सर्वव्यापकता तथा उसे जानने की महत्ता का वर्णन है। उसे नौ द्वार वाली पुरी में, इन्द्रिय रहित सर्वसमर्थ लघु से लघु और महान् से महान् कहा गया है।
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पंचम एवं षष्टम अध्याय
इस उपनिषद् के अध्याय पाँच और छः में विद्या-अविद्या तथा उनके शासक परमात्मा की विलक्षणता बतलाकर परमात्मा को ही उपास्य मानने वाले औपनिषदीय ज्ञान का अनुगमन करने की बात कही गई है। जीव के कर्मानुसार उसकी विभिन्न गतियों, नाना योनियों तथा उनसे मुक्ति के उपाय कहे गये हैं। पुनः जगत् का कारण जड प्रकृति के स्थान पर परमात्म तत्त्व को निरूपित किया गया है। उसके लिए ध्यान, उपासना एवं ज्ञानयोग का आश्रय लेने की बात कहकर परमात्मा की सर्वव्यापकता तथा सर्वसमर्थता सिद्ध की गई है। अन्त में यह विद्या सुपात्र को ही दी जाय, यह निर्देश दिया गया है।
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