योगकुण्डल्युपनिषद् का परिचय
योगकुण्डल्युपनिषद् एक योगपरक उपनिषद् है जो की कृष्ण यजुर्वेदीय परम्परा से सम्बन्धित है। योगकुण्डल्युपनिषद् को योगकुण्डलिनी उपनिषद् के नाम से भी जाना जाता है। उपनिषदों का सम्पूर्ण परिचय एवं उपनिषदों में योग के स्वरुप के विषय में हम पूर्व में ही जान चुके हैं। यह उपनिषद् कुंडलिनी योग की व्याख्या से संबंधित एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपनिषद् है। योगकुण्डल्युपनिषद् में कुल तीन अध्याय हैं जिनमें योग के प्रमुख सभी विषयों का वर्णन किया गया है। इस उपनिषद् में वर्णित योग विषयों को आगे अध्यायों के अंतर्गत वर्णित किया गया है।
प्रथम अध्याय
योगकुण्डल्युपनिषद् के प्रथम अध्याय में सर्वप्रथम वायुजय अर्थात् प्राणायाम सिद्धि के तीन उपाय- 1. मिताहार 2. आसन एवं 3. शक्तिचालिनी मुद्रा बताये गये हैं।
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द्वितीय अध्याय
योगकुण्डल्युपनिषद् के द्वितीय अध्याय का शुभारम्भ खेचरी
मुद्रा के विशद विवेचन से हुआ है। जिसमें खेचरी का स्वरूप, उसकी फलश्रुति, मन्त्र जप से खेचरी की सिद्धि, खेचरी का अभ्यास क्रम आदि का विस्तृत वर्णन है।
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तृतीय अध्याय
योगकुण्डल्युपनिषद् के तृतीय अध्याय में खेचरी मेलन अर्थात् खेचरी सिद्धि का मन्त्र उल्लिखित हुआ है, तदुपरान्त अमावस्या, प्रतिपदा और पूर्णिमा के दृष्टान्त से साधक की दृष्टि का उल्लेख है। इसके बाद प्राणायाम के अभ्यास से विराट के रूप की उत्पत्ति अर्थात् सिद्धि, अभ्यास के बिना आत्मा का प्रकाश असम्भव, सद्गुरु के उपदेश से ब्रह्म का ज्ञान, ब्रह्म के विविध अधिष्ठान अर्थात् वाक् वृत्ति, विश्वादि प्रपंच, परात्पर ब्रह्म का स्वरूप, ब्रह्म प्राप्ति का उपाय- ध्यान तथा अन्त में जीवन्मुक्ति एवं विदेहमुक्ति आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार योग के सभी प्रमुख विषयों को प्रस्तुत करते हुए उपनिषद् को पूर्णता प्रदान की गई है। योगकुण्डल्युपनिषद् का परिचय इस प्रकार से प्राप्त होता है।
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